________________
६४० ]
[ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
अगर ऐसा कार्य मन, वचन, काय, कारित, कृत, अनुमोदना से मुनि करे तो उसके अध कर्म दोष लगता है । इसको ही नवकोटि दोप कहते है । (देखो आचारसार अ०८, श्लोक १६ ) उद्दिष्ट दोष इससे जुदा है । उसकी गणना - ६ उद्गम दोषी मे की है । उद्गमादि मिला कर कुल ४६ दोप होते हैं । नवकोटि की अशुद्धि यह ४६ दोपो से अलग है । मूलाचार मे एषणा समिति का स्वरूप वनाते हुए गाथा मे ४६ दोष और नवकोटि की अशुद्धि दोनो टालने का उपदेश दिया है । (यह गाथा प्रस्तुत लेख मे ऊपर उद्धृत की जा चुकी है ) इमसे सिद्ध होता है कि ४६ दोपो मे वर्णित उद्दिष्ट दोष और नवकोटि दोनो भिन्न २ हैं । इससे यही फलितार्थं निकलता है कि आहारादि के बनाने मे मुनि का अनुमति आदि कुछ भी सम्पर्क होना उद्दिष्ट दोष नही है । वैसा करना तो अध कर्म दोष होता है । तो फिर उद्दिष्ट दोप कोनसा है ? उसका स्वरूप निम्न प्रकार से बताया गया है
-
मूलाचार पिण्ड शुद्धि अधिकार गाथा ६-७ मे जैन निग्रंथ मुनियो को उद्देश्यकर यानी उनके निमित्त से बनाये गये आहार को उद्दिष्ट आहार माना है । उसको ग्रहण करने वाले मुनि के उद्दिष्ट दोष लगता है | कार्तिकेयानुप्रेक्षा सस्कृत टीका के पृष्ठ २८५ मे उद्दिष्ट की व्याख्या ऐसी की है - "पात्र मुद्दिश्य निर्मापित उद्दिष्ट ।" पात्र के उद्देश्य से बनाया उद्दिष्ट है ।
इसका मतलब यह हुआ कि जिस आहार के बनाने में मुनि का मन, वचन, काय, कृत, कारित अनुमोदना सम्बन्धी चाहे कुछ भी लगाव न हो, उसको श्रावक ने अपनी ही इच्छा