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उद्दिष्ट दोप मीमांसा ]
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से मुनियो के निमित्त बनाया है तो ऐसा आहार भी उद्दिष्ट दोप से दूषित माना जाता है और वह मुनियो के लिए त्याज्य होता है । कोई कहे - सभी मुनि मन पर्यय ज्ञानी तो होते नही, उनको क्या मालूम कि दाना ने हमारे निमित्त से आहार बनाया है या नही बनाया है ? इसका उत्तर यह है कि एक यही नही दोप तो सभी प्राय मालूम होने पर ही लगते है। मालूम होने पर भी आहार को न त्यागे तभी दोप लगता है । यह नही कि आम लोगो के सामने यह स्पष्ट होते हुए भी कि - अमुक चौके मुनियों के निमित्त से ही बनते और खुद मुनि भी अपने मन मे ऐसा ही जान रहे है फिर भी वे मुनि उसमे जीमते रहे और ऊपर से यह कहते रहे कि हमको क्या पता कि ये हमारे लिए बनाते हैं तो यह तो अपने को निर्दोषी बताने का ढोग है । फल तो भावो का लगेगा । तथा अन्य निर्वाध हेतुओ से भोजन की उद्दिष्टता आदि स्पष्ट होते हुए भी नवधाभक्ति मे दाता के यह कह देने मात्र से कि - " भोजन शुद्ध है ।" उसे शुद्ध मान लेना यह भी दोपो के परिहार का मार्ग नही है ।
मूलाचार पिण्ड शुद्धि अधिकार की गाथा ८ मे लिखा है कि - " कोई श्रावक मुनि को देख कर उन्हे आहार देने के लिए अपने बनते हुए आहार मे और भी जल तन्दुल आदि डालकर आहार को बढालें तो वह अध्यधि नामक दोप होता है ।
इस कथन से और भी स्पष्ट हो जाता है कि श्रावक मुनियों के उद्देश्य से आहारादि बनावे तो वह सदोप आहार है । जिसका परित्याग मुनियो को करना पडता है कोई कहेदोप तो यहाँ श्रावक ने किया, मुनि ने तो किया नही । इसका उत्तर यह है कि कोई भी करो आहार तो सदोष हो
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