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* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ वसुनन्टि ने इस प्रतिमा वालो के लिये पर्व मे चार प्रकार के आहार का त्याग रूप उपवास रखने का भी नियम लिखा है जो पूर्व ग्रन्थो मे नही है। ऐसा पूर्व ग्रन्थो मे क्यो नही ? और इन्होने क्यो लिखा ? इसका भी एक कारण है और वह यह है कि पूर्व ग्रन्थकारो ने तो वैमा उपवास का विधान चौथी प्रोपधप्रतिमा मे ही कर दिया था। अत उनको इस ११वी प्रतिमामे युन' कहने की जरूरत ही नहीं थी। किन्तु वसुनन्दि ने वीथी प्रतिमा मे प्रोपध का उत्तम मध्यमादि भेद करके पर्व मे एकाशन तप करने को प्रोपध बता दिया है । ग्रन्थातरो मे ऐसा विधान प्रोपध शिक्षाव्रत मे लिखा है। इसलिये वसुनन्दि को इस ११वी प्रतिमा मे पर्व के दिन नियम से उपवास करने को लिखना पडा है। वसुनन्दि ने चौथी प्रतिमा मे प्रोषध का जो स्वरूप वतलाया है वह भी समतभद्रादि पूर्व ग्रन्थकारो के मत से भिन्न ही लिखा है।
इस प्रकार वमुनन्दि ने लौच करना (यह मुनियों का मूल गुण है ) आदि जो मुनि की नियायें थी उन्ही का श्रावक दशा मे विधान करके उसका नाम द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक रख दिया है। इस प्रकार का विधान वसुनन्दि से पूर्व के किसी प्रथकार के द्वारा किया हुआ जब तक उपलब्ध न हो जाये तब तक यही कहा जायेगा कि ऐसी प्ररूपणा सबसे प्रथम वसुनन्दि ने ही की है। इस विधान मे सवस्र भट्टारको का रूप छिपा हुआ है। आगे चल कर तो यह मार्ग इतना विगड गया है कि-आजकल तो ११वी प्रतिमा मे पछेवडी रखने वाले तक आमतौर पर | लौच करते दिखाई देते है। उनके अन्धभक्त श्रावक उनके केशलु चन का उच्छव करतेहैं । वे रेल मे सफर करते है। गुरु के