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चातुर्मास योग - ]
[ १२१ आवश्यक बताया है । इससे पहिले तो मुनिजन कदाचित् भी वहां से विहार नही कर सकते हैं । और अधिक से अधिक मगसिर मास की समाप्ति तक भी उस स्थान को नहीं छोडने को कहा है।
मूलाचार समयसाराधिकार गाथा १८ की टीका मे दश प्रकार के श्रमण कल्प का वर्णन करते हए मास नाम के ६ वें कल्प का कथन इस प्रकार किया है । - "मास. योगग्रहणात् प्राड मासमात्रमवस्थान कृत्वा वर्षाकाले योगो ग्राह्यस्तथा योग-समाप्य मासमात्रमवस्थान वर्तव्य । लोकस्थिति ज्ञापनार्थमहिंसादिव्रतपरिपालनार्थं च योगात्प्राड - मासमात्रमवस्थान, पश्चाच्च मासमात्रमवस्थान श्रावक लोकादिसक्लेशपरिहरणाय अथवा ऋती २ मासमासमात्र स्थातव्य मासमात्र च विहरण कर्तव्यमिति मास श्रमणकल्पोऽथवा वर्षाकाले योगग्रहण चतुर्बु चतुर्यु मासेषु नदीश्वरक रण च मास श्रमणकल्प ।"
- अर्थ-जिस स्थान मे वर्षायोग ग्रहण करना है उस स्थान मे वर्षाकाल से एक मास पहले ही उपस्थित होकर वर्षायोग ग्रहण करना और वर्षायोग की समाप्ति हो जाने पर भी एक मास भर वही ठहरे रहना इसे मास कल्प कहते हैं । वहाँ के लोगो की परिस्थिति को जानने के लिए और अहिंसादि व्रतो की पालनाके लिए उस स्थान मे वर्षायोग से एक मास पूर्व ही चले जाते है । और श्रावक लोक आदिको को सक्लेश न होने देने के लिए वर्षायोग को समाप्ति के बाद भी एक मास तक वहाँ ठहरे रहते हैं । अयवा प्रत्येक ऋतु मे एक-एक मास तक एक जगह ठहरे रहना और एक-एक मास तक विहार करते रहना इसे भी माम नाम का श्रमणकल्प कहते हैं । अथवा वर्षाकाल मे