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[ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
वर्षा योग ग्रहण करना और चार-चार महीने मे नदीश्वर करना यानी आष्टाह्निक पर्व के ८ दिन तक एक जगह ठहरे रहना यह भी मास श्रमणकल्प कहलाता है ।
भगवती आराधना गाथा ४२१ की मूलाराधना टीका में पं० आशाधर जी ने इस प्रकरण को विजोदया टीका से उद्धत करते हुए निम्न प्रकार लिखा है
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"प्रावृट्काले मासचतुष्टयमेकत्रावस्थान । स्थावरं जगमजीवाकुना हि तदा क्षितिरिति तदा भ्रमणे महान सयम ...." इति विशत्यधिक दिवसशतं एकत्रावस्थानमित्यय उत्सर्ग | कारणापेक्षया तु हीनमधिक बावस्थान । सयतानामाषाढ शुक्लदशम्या प्रभृति स्थितानामुपरिष्टाच्च कार्तिक पौर्णिमास्यास्त्रिशदिवसावस्थान । ... .. एकत्रेत्युत्कृष्ट काल. । मार्या दुर्भिक्षे ग्रामजनपदचलने वा गच्छनाशनिमित्तं समुपस्थिते देशातर याति । अवस्थाने सति रत्नत्रयविराधना भविष्यति इति पौर्णमास्यामषाढड्यामतिक्राताया प्रतिपदादिषु दिनेषु यावच्चत्वारो दिवसा 1 एतदपेक्ष्य हीनता कालस्य । एष दशम. स्थितिकल्पो व्याख्यातः टीकाया । टिप्पन के तु द्वाभ्या द्वाभ्या मासाभ्या निषद्यका द्रष्टव्येति ।"
अर्थ - वर्षा काल में मुनियों को चार मास तक एक जगह रहना चाहिए । क्योकि उस समय पृथ्वी स्थावरत्रस जीवो से व्याप्त हो जाती है इससे उस समय विहार करने से महान
1 विजयोदया टोका मे इस स्थान पर ४ दिन की जगह २० दिन लिखे हैं । इसका कारण वहां पाठ की अशुद्धि मालूम पडती है ।