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५३२' ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ मे दो तीर्थंकरो का सद्भाव नही हो सकता है।
यहाँ यह भी ध्यान मे रखने की बात है कि-ये स्वयंप्रभ तीर्थकर वे नहीं है जिनका नाम बीस सीमधरादि मे ६ वे नम्बर पर आता है। वे तो धातकी खण्ड के विदेहक्षेत्र मे हुए हैं। इसलिये उत्तर पुराण मे लिखे उक्त तीर्थंकर पुडरीकिणी नगरी मे उस वक्त कोई जुदे ही स्वयप्रभ नाम के तीर्थंकर थे, जिनके पास मे जाकर नारदजी ने प्रद्युम्न का हाल पूछा था । अगर उस वक्त वहाँ सीमधर होते तो आचार्य गुणभद्र स्वयप्रभ का नाम नही लिखते।
पुष्पदत कवि का बनाया हुआ अपभ्र श भाषा मे एक महापुराण है जिसमे गुणभद्र कृत उत्तरपुराण की कथाओ का अनुसरण किया गया है। उसके तीसरे खण्ड के पृ० १६० पर भी यह कथन उत्तरपुराण के अनुसार ही लिखा है । अर्थात् वहाँ भी प्रद्युम्न का हाल स्वयत्रभ तीर्थंकर ने बताया लिखा है।
इस प्रकार उत्तरपुराण जो कि मूलसघ की परम्परा का ग्रन्थ माना जाता है उसके अनुसार तो नारद जी विदेह में प्रद्य म्न का हाल पूछने गये तब तक तो सीमधर स्वामी वहाँ विद्यमान ही नही थे इसलिये यही मानना पडता है कि वे बाद मे ही कभी हुए हैं।
जबकि उत्तर पुराण से डेढ सौ वर्ष करीव पहिले पद्मपुराण बन चुका था और हरिवश पुराण भी उत्तर पुराण से पहिले का है फिर भी गुणभद्र ने उनके कथन को अपनाया नही, इससे यही फलितार्थ निकलता है कि रविषेण और जिनसेन (हरिवश पुराणकार) की आम्नाय अलग थी एव गुणभद्र की