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१५२ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ को लिखा जाना चाहिये था। आगम प्रमाण के लिये देखिये आचार्य श्री विद्यान दि स्वामी कृत तत्वार्थ श्लोक वानिक का निम्न विवेचन
"अष्टचत्वारिशद्योजनकपष्टि-भागत्वात् प्रमाणयोजनापेक्षया, सातिरेकत्रिनवतियोजनशतत्रयप्रमाणत्वादुत्सेधयोजनापेक्षया ।"
- मूलमुद्रित पृ० ३७८ अर्थ-सूर्य का व्यास एक योजन के ६१ भागो मे ४८ भाग प्रमाण है। ऐसा कथन प्रमाण योजन की अपेक्षा से है। उत्सेध योजनो की अपेक्षा तो वही व्यास कुछ अधिक ३६३ योजनो का होता है।
क्षल्लकजी की मान्यतानुसार सूर्य का व्यास सिर्फ ६॥ मील करीब ही होता है। जबकि श्लोकवार्तिक के अनुसार ३१४७।। मीलो का होता है । दोनो मे बहुत अतर है । गोल होने से सूर्यादि का जितना व्यास यानी चौडाई है उतनी ही उनकी लवाई है।
जहा तक हमारा ख्याल है सूर्यचद्रादि का माप सग्रहणी सूत्र मे भी छोटे योजन की अपेक्षा से नही लिखा होगा । और न अन्य जैन शास्त्रो मे ही लिखा है। अगर कही लिखा हुआ देखा हो तो क्षुल्लकजी महाराज उसे प्रकट करने की कृपा करेगे।
इन सग्रहणी सूत्रो का विषय और भी सविशेष रूप से तत्वार्थ सूत्र की टीका-राजवातिक-श्लोकवार्तिक आदि मे एव -त्रिलोकसार, त्रिलोक प्रज्ञप्ति, जबूद्वीप प्रज्ञप्ति और श्वे लोक प्रकाशादि ग्रंथो मे पाया जाता है अत इन संग्रहणी सूत्री को लेकर जो इतना लबा चौडा अंतिशयोक्ति पूर्ण कथन किया गया