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________________ १७२ । [ * जैन निबन्ध रलावली भाग २ दिया हो ऐमा प्रतीत होता है । ओपने उपदेशरत्नमाला के कर्त्ता भट्टारक सकलभूपण का समय विक्रम की १५ वी शती लिखा है यह भी समीचीन नहीं है। स्वयं ग्रंथकार ने उपदेशरत्नमाला की समाप्ति का समय वि० सं० १६२७ दिया है । यथा सप्तविशत्यधिके षोडशशत वत्सरेषु विक्रमत । श्रावणमास शुक्ल पक्षे षष्ठ्यो कृतो ग्रंथ ॥२६५।। अत. सकलभूपण १७ वी गती के है । न कि १५ वीं गती के। अद्यावधितक बहेत सी ऐतिहाँ सेक सामग्री प्रकाश में आचुकी है इतने पर भी विहान लोग भूले कते है यह वेद की बात है। ★ *नोट - इसी तरह की- गलतियां विद्वपरिपद् के सन् ६८ के अध्यक्षीय भापर्ण (मुद्रित) मे की है देखो जैन मिभ ज्येष्ठज्द ४-२०२५. के अंक में । भावसेन ने विश्वतत्व प्रकाश तथा आशाधर के अध्यात्म रहस्य को अप्रकाशित बताया है किन्तु वे तो सन् ६% से कुछ वर्षों पहिले प्रकाशित हो चुके हैं । एक जगह पारने लिखा है-"जिसमे कथा वस्तु एक ही नरिक से संबद्ध हो वह नहाकाज्य कहा जाता है" किन्तु यह ठीक नही है ऐसें को तो चरित-काव्य कहते हैं क्योकि आपने स्वय आगे उसी लेख मे लिखा है कि एक व्यक्ति को मानकर लिखी गयी कथा कुतियां चरित काव्य मे रखी जा सकती हैं।"
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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