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[ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
रानी ने संस्कृत मे राजा को कहा " हे नाथ मोदकैस्ताडय" । सुनकर राजा ने वह लड्डू मगवाये । तव वह रानी हंसकर वोली- हे राजन् यहा जल क्रीडा मे मोदको का क्या काम ? मैंने तो आप से यह कहा था कि "हमे जल से मत ताडना, करो" आप 'मा' शब्द और 'उदक' शब्द की सधि भी नही जानते है और मौके को भी नही समझते है । उस समय राजा की और रानियो ने हसो की । इससे राजा वडा लज्जित हुआ। वह जलक्रीडा छोड अपमान से खेदित हो राजमहल मे चला गया । वहा वह मौन पकड के चिन्तातुर सा रहने लगा । शर्ववर्मा और गुणाढ्य इन दो मंत्रियो ने राजा से बातें करना चाहा पर राजा बोला नही । तव शर्ववर्मा ने राजा का मोनभग कराने के अभिप्राय से एक चौका देनेवाली बात कही कि मुझे रात्रि को एक स्वप्न हुआ है - जिसका फल यह है कि सरस्वती आप के मुख मे प्रवेश कर गई है । यह सुन कर राजा बोल उठा कि तुम बताओ मनुष्य प्रयत्न करे तो कितने दिनो मे पण्डित हो सकता है ? म ुझे पाण्डित्य के बिना यह राज्यलक्ष्मी अच्छी नही मातृम होती उत्तर मे गुणाढ्य ने कहा- व्याकरण का ज्ञान मनुष्य को बारह वर्ष मे होता है परन्तु आपको मैं छ. वर्ष मे ही सिखा दूंगा। वीच ही मे बात काटकर ईर्ष्या से शर्ववर्मा ने कहा सुखी पुरुप इतना श्रम कैसे कर सकता है ? हे राजन् | मैं आपको छः हो मास मे व्याकरण सिखा सकता हू । यह सुन कर गुणाढ्य क्रोधित हो बोला- जो तुम छ मास में राजा को व्याकरण सिखा दो तो मैं संस्कृत प्राकृत और अपने देश की बोली ये तीनो भाषाये जिन्हे कि मनुष्य बोला करते है बोलना छोड़ दूंगा । तव शर्ववर्मा ने कहा जो मैं छ महीने मे इन्हे व्याकरण न पढादू तो बारह वर्ष तक तुम्हारी खड़ाऊँ
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