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जैन निबन्धनावली भाग २
पुराण में गुणभद्रसुरिने बडेही हृदयग्राही ढंग से किया है, पाठको की जानकारी के लिये उसे हम यहा देते है
गौतम गणधर अपना जीवन वृत्तांत सुनाते हुये कहते
हैं कि
श्रीवर्धमानमानस्य संयमं प्रतिपन्नवान् । तदेव मे समुत्पन्ना परिणामदिशेषत ॥ ३६८ ॥ ऋद्वय सप्त सर्वागानामप्यर्थपदान्यत । भट्टारकोपदेशेन श्रावणे वहुले तिथौ ॥ ३६६ ॥। पदार्थावर्थरूपेण सद्यः पर्याणमन् स्फुटम् पूर्वा पश्चिमे भागे पूर्वाणामप्यनुत्रमात् ॥ ३७० ॥ इत्यनुज्ञातसर्वार्थो धीचतुष्कवान् ।
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अगानां ग्रंथसदर्भ पूर्वरात्रे व्यधामहम् ॥ ३७१॥ - पूर्वाणां पश्चिमे भागे ग्र थकर्ता ततोऽभवम् । इति श्रुतभि पूर्णोऽभूव गणभृदादिम ॥ ३७२ ॥ ७४ वां पर्व.
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अर्थ - श्री वर्द्ध मान स्वामी को नमस्कार कर सयम धारण कर लिया। परिणामो की विशेष विशुद्धि होने से उसी समय मुझे सात ऋद्धिया प्राप्त हुई । तदनतर श्रीं वर्द्धमान भट्टारक के उपदेश से श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के दिन सवेरे के समय सब अगो के अर्थ और पद शीघ्र ही अर्थ रूप से स्पष्ट जान पडे और इसी तरह उमी दिन के साम के समय अनुक्रम से सब पूत्र के अर्थ और पदो का ज्ञान होगया । तथा चौथा मन पर्ययज्ञान भी होगया । तदनतर मैंने रात्रि के पहिले भाग मे अगो की ग्रथ रूप से रचना की और रात्रि के पिछले भाग मे पूर्वो की ग्रथ रचना की इस तरह अग और पूर्वो से रचना कर