________________
सिद्धान्ताध्ययन पर विचार ]
ज्ञानकी इतकी अधिक महिमा होने के कारण ही शास्त्रकारीने स्वाध्यायको 'न स्वाध्यायात्पर तप' पदसे सभी तपो मे बढकर तप कहा है ।
मूलाचार मे कहा है कि
बारसविधय तवे सम्भतरवाहिरे कुसल दिठे । णवि अत्थि णविय होहदि सझायसम तवो कम्मम् ६७० यही गाथा भगवती आराधना आश्वासर न० १०७ पर है । सूई जहा ससुत्ता ण णस्पदिहु प्रमाददोसेण । एवं ससुत्त पुरिसो ण णस्सदि तह पमाददोसेण ॥७१॥
"'"
'वट्टकेराचार्य ।'
अर्थ - ( तीर्थंकर गणधरादिकर दिखाये अभ्यंतर बाह्य भेदयुक्त बारह प्रकार के तप मे स्वाध्याय के समान उत्तम अन्य तप न तो है और न होगा ।)
जैसे सूक्ष्म भी सुई प्रमाद दोष से गिरी हुई यदि डोराकर सहित हो तो नष्ट नही होती - देखने से मिल जाती है, उसी तरह शास्त्र स्वाध्याय युक्त पुरुष भी प्रमाद दोष से उत्कृष्ट तप रहित हुआ भी ससार रूपी गढ्ढे मे नही पडता ।
1
भूत
जो ग्रंथ परमपूज्य केवली के बचनो की परम्परा लिये। हो और जिन मे आत्मा का परमाराध्य मोक्ष की कारणी भूत कथनी हो उससे बढकर कौन हो सकता है ?
वर्तमान के उपलब्ध जैन परमागम की रचना गौतम गणधर कथित सूत्र के आधार से हुई है । गौतम स्वामी ने किस समय किस प्रकार ग्रंथ रचना की यह वर्णन उत्तर