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सिद्धान्ताध्ययन पर विचार
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क्षुधा आदि बाधाओ को भेटने के लिये जैसे पशुओ के आहार निद्रा भय मैथुन आदि कार्य होते हैं वैसे मनुष्योके भी होते है किंतु जिस ज्ञान को विशेषता मनुष्य समाज मे है वह पशुओमे नहीं है इसीसे मनुष्य श्रेष्ठ समझा जाता है। किसीने ठीक ही कहा है कि- ज्ञानेन हीना पशुभि समाना' जिस प्रकार खान से निकला हुआ रत्न सस्कारके योग से बहुमूल्यवान हो जाता है उसी प्रकार मनुष्य भी ज्ञान सस्कारसे महान गिना जाता है । अथवा जसे बारबार अग्निसस्कारसे सुवर्ण दीप्तिवान हो जाता है उसी तरह बारबार ज्ञानाभ्याससे मनुप्य भी दीप्तिशाली माना जाता है । यह तो निश्चित है कि-माताके उदर से निकले बाद अगर मानव को शिक्षा ग्रहण से बिल्कुल ही रोक दिया जाए तो सचमुच वह पशुसे भी निकृष्ट हो सकता है। इसी विषयक नीतिका यह श्लोक कितना मर्मस्पर्शी है
शुनः पुच्छमिव व्यर्थं जीवितं विद्यया विना॥ न गुह्यगोपने शक्तं न च दशनिवारणे ।।
इसमे कहा है कि-विद्याविहीन जीवन कुत्ते को पू छकी भाति व्यर्थ है जो न तो गुह्यागको ढक सकती है और न मक्खियो को ही उडा सकती है .