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[ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
पुद्गल
को वर्गगाये स्वय ही कर्मरूप से परिणम जाती हैं । मतलव यह है कि कार्मण वर्गणा यह एक पुद्गल स्कन्ध की जाति विशेष है जो सारे लोक मे व्याप्त है जहा भी जीव के राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ मोहादिभाव पैदा हुए कि वह कर्मरूप बनकर आत्मा के प्रदेशो के साथ मिल जाती है। इसे ही जैनधर्म मे कर्मबन्ध होना बताया है । वे ही बधे हुए कर्म अपने उदयकाल मे इस जीव को अच्छा-बुरा फल देते हैं और इसे ससार मे रुलाते है । जैसे अग्नि से तप्त लोहे का गोला पानी मे डालने से पानी को अपनी तरफ खीचता है । उसी तरह कपाय भावो से ग्रसित आत्मा कर्म वर्गणाओ को अपनी ओर खीचकर उनसे आप चिपट जाता है । जैसे पी हुई मदिरा कुछदेर बाद अपना असर पैदा करके पीने वाले को बावला बना देती है । उसी तरह बाधे हुए कर्म कालातर मे जब अपना फल देते हैं तो उससे जीव सुखी, दुखी, रोगी, निरोगी, सवल, निर्बल, धनी, निर्धन आदि अनेक अवस्थाओ को प्राप्त हो जाते हैं । इस प्रकार जैनधर्म मे जीवो की विचित्रता के कारण उनके अपने बाँधे हुए कर्म माने गये हैं । जैसे बीज के विना धान्य नही होते, वैसे ही कर्मों के विना जीवो की नाना प्रकार की अवस्थाये नही हो सकती है | कर्मों के अस्तित्व की सिद्धि के लिये यह एक हेतु है । अन्यथा कर्म इतने सूक्ष्म हैं कि हम छद्मस्थ उनका कदापि प्रत्यक्ष नही कर सकते है । जिस प्रकार पुद्गल के परमाणु हमारे इन्द्रियगोचर नही हैं परन्तु उनसे बने देखकर हमे परमाणु का अस्तित्व मानना पडता है । कर्मों के शुभाशुभ फल को प्रत्यक्ष देखकर परोक्षभूत अस्तित्व भी मानना होगा ।
स्कन्ध को
प्रश्न पुष्पमाला, चन्दन, स्त्री आदि प्रत्यक्ष सुख के
उसी तरह
कर्मों का