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________________ ३६ ] [* जेन निवन्ध रत्नावली भाग २ हैं एक शरीर मे रहने वाले वे अनन्त जीव सब साथ-साथ ही जन्मते है साथ-साथ ही मरते है और साथ-साथ ही श्वास लेते है। एक श्वास में १८ बार जन्म-मरण करने वाले अलब्धपर्याप्तक जीव तो न तो साथ-साथ जन्मते-मरते हैं, न साथ-साथ श्वास लेते हैं और न उन वहुतसो का कोई एक शरीर ही होता है। हाँ अगर ये जीव साधारण-निगोद मे पैदा होते हैं तो बेशक वहाँ वे सव साथ-साथ ही जन्मते-मरते और श्वास लेते है। ये ही अलब्धपर्याप्तक जीव वहाँ एक श्वास मे १८ बार जन्म-मरण करते है। इनसे अतिरिक्त अन्य जीव निगोद मे एक श्वास मे १८ वार जन्म-मरण नही करते हैं। तात्पर्य यह है कि समस्त निगोद मे पर्याप्तक जीव भी होते हैं। उनमे एक अलब्धपर्याप्तक जीव ही सिर्फ एक श्वास मे १८ वार जन्म-मरण करते है, पर्याप्तक नही । पर्याप्तक जीव भी वहाँ अनन्तानन्त हैं जिनकी संख्या हमेशह अलब्धपर्याप्तको से अधिक रहती है। निगोद ही नहीं अन्यत्र सादिको मे भी जो अलब्धपर्याप्तक जीव होते है वे ही एक श्वास मे १८ वार जन्म-मरण करते है, सव नही । सिद्धान्तग्रन्थो मे इतना स्पष्ट कथन होते हुए भी लोगो मे भ्रात धारणा क्यो हुई ? इसका कारण निम्नाकित उल्लेख जात होते है - (१) स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा की सस्कृत टीका ( शुभचन्द्रकृत ) पृष्ठ २०५ गाथा २८४ मे-निगोदेषु जीवो अनन्तकाल वसति । ननु निगोदेषुएतावत्कालपर्यन्त स्थितिमान् जीव एतावत्कालपरिमाणायु किं वा अन्यदायु. इत्युक्त प्राह-"उपरिहीणो" इति आयु परिहीन उच्छ्वासाष्टादशैकभागलक्षणान्तर्मुहूर्तः स्वल्पायुविशिष्ट प्राणी । इसका हिन्दी अनुवादक जी ने कोई अनुवाद नही किया है,
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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