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३६६ ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ करना ठीक है, अन्य धर्म तो भयानक है)
कुछ मनुष्य इसके भी आगे बढे हैं, वे कोई धर्म ही नहीं मानते उनका विचार है कि ~~ तर्कोऽप्रतिष्ठ श्रु तयो विभिन्ना नंको मूनिर्यस्य वचः प्रमाणम् । धर्मस्य तत्वं निहितं गुहाया महाजनो येन गतः स पंथा। ' अर्थ- तर्क को कोई प्रतिष्ठा नही (उससे असत्य को भी सत्य सिद्ध किया जा सकता है ) श्रुतियो का यह हाल है कि वे एक से एक मिलती नहीं, ऐसा कोई ऋषि भी नहीं जिसका कि वचन प्रमाण माना जाय इधर धर्म इतना गूढ है कि उसका ठीक तत्व समझ नहीं पडता तब उसी रास्ते चलना चाहिए जिसपर प्रतिष्ठित पुरुष चल रहे है।
पर इस तरह अंधाधुन्ध चलना एक आत्महितेषी के लिये उचित नहीं कहा जा सकता। इसीलिये इस छोटे से ट्रेक्ट में यह चर्चा उठाई गई है और इसमे यह पूर्ण रीति से सिद्ध किया गया है कि एक ऐसा भी धर्म वर्तमान में प्रचलित है जो अपने को सर्व श्रेष्ठ और यथार्थ होने का दावा रखता है वह किस तरह
किन्तु इसमे परीक्षा प्रधानता न होकर पक्षाधता है एक भव्य मुमुक्षु प्राणी इस तरह लकीर का फकीर नहीं बनता एक नीतिकार ने कहा है-"तातस्य कूपोऽय मिति व वाणा. क्षार जल का पुरुषा पिवति" (यह कुमआ हमारे बाप-दादो का है यह मानकर खारे जल को भी पीते रहने वाले कापुरुष हैं, विवेकी नहीं। जम चार पैसे की हाडी-ठोक बजाकर ली जाती है तो जिस धर्म से इस लोक और परलोक का सम्बन्ध है उसे यो ही मानते चले जाना समझदारों का काम नहीं।