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३३.
जैन धर्म श्रेष्ठ क्यों है ?
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ससार मे मत मतान्तरो का इतना जाल छाया हुआ है, कि उसके मारे किसी मुमुक्ष, को यह तक पता नही पडता कि मुझे किस मार्ग से चलने मे लाभ है ।
"हरित भूमि तृण सकुलित समुझि पर नहि पंथ । जिमि' पाखंडि विवाद ते लुप्त होहिं सग्रंथ ॥
अर्थात हरीघासो से अच्छादित मार्ग जिस प्रकार दिखाई नही देता उसी तरह पाखण्डियो के विवाद से यह नही जान पंडता कि उत्तम ग्रन्थ कौन है जिनके कथनानुसार चला जाये । सवही मजहबों की ओर आँख उठाकर देखिये वे सब अपनीअपनी तारीफो के पुल बाँधते हुए दीख पडेंगे, उन्हे सुनकर हितेच्छु प्राणी डाँवाडोल सा हो जाता है और वह अपने लिये कुछ भी निश्चित नही कर पाता । तब विवश हो यही एक करना सबको अच्छा मालूम होता है और ऐसा ही किया भी जाता है कि जो धर्म बाप-दादो से चला आता है उसीपर हम भी चलते रहे । कहा भी है कि
" स्वधर्मे निधन श्रय. परधर्मो भयावह '
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अपने धर्म का पालन करते-करते ही जीवन व्यतीत