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ऐलक चर्या क्या होनी चाहिए और क्या हो रही है ? ] [ ७३
मूलाचार संस्कृत पृष्ठ ४४, अनगार धर्मामृत संस्कृत पृष्ठ ६८२, आचार सार पचमोधिकार श्लोक १२२ मे भी मुनि के स्थिति भोजन मे यही कारण बताया गया है ।
पाठक समझ गये होगे कि मुनि जो खडे आहार लेते है उसमे कितनी भीषण प्रतिज्ञा है । ऐसे कठिन अनुष्ठान के लिये श्रावक को अयोग्य समझकर ही ग्रन्थो मे १९ वी प्रतिमाधारी के लिए बैठे भोजन की आज्ञा प्रदान की गई है । और इसी आधार पर शायद भूधरदास जी ने पार्श्वपुराण मे ऐलक के लिये अजुली जोड कर भोजन करने का भी उल्लेख नही किया मालूम होता है । जो ऐलक कौपीन मात्र को नही त्याग सकता उसमें इतना साहस कहाँ से आ सकता है ? और इसीलिये उसके आतापनादि योगो का भो निषेध शास्त्रो मे किया गया जान पडता है। खुद प० वामदेव ने भावसग्रह मे ११ वी प्रतिमा वाले के वीरचर्या न होने का कारण कौपीन मात्र परिग्रह वतलाया है । वह वाक्य इस प्रकार है
'वीरचर्या न तस्यास्ति वस्त्रखेड परिग्रहात्' । ५४८ ।
सोचने की बात है अगर ऊँची क्रिया के बहाने शास्त्र - विरुद्ध प्रवृत्ति की जायेगी तो - आर्यिका क्षुल्लक व ब्रह्मचारी गण भी खडे भोजन करना प्रारम्भ कर देंगे फिर उन्हें कैसे रोका जायगा ? अत शास्त्रानुसार प्रवृत्ति करने मे ही सबका हित है इसी से त्यागी वर्ग मे अनुशासन वना रहेगा, अन्यथा स्वछन्दता फैल जायेगी । अगर ऐलक शुद्ध मन से ऊंची किया पालने की भावना रखते है तो साहस करके लगोटी छोड दे फिर उन्हे कोई खडे भोजन से रोकने वाला नही मिलेगा ।
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