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[ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
इस प्रकार इस विषय मे जितना भी विचार किया जाता है किसी भी तरह ऐलक के लिये खडा भोजन सिद्ध नही होता । इस विषय के सभी संस्कृत प्राकृत के उपलब्ध ग्रन्थ देखे गये उनमे कोई एक भी ऐलक को खडे आहार की आज्ञा नही देता और किसी मे भी यह लिखा नही मिलता कि ऐलक के वास्ते पर्वतिथियों में प्रोषधोपवास करने का नियम नही है । इतना विवेचन किये वाद भी यदि किसी अर्वाचीन मामूली ग्रन्थ मे इसके विरुद्ध लिखा मिल जावे तो वह प्रमाण नही माना जा सकता । क्योकि आधुनिक किसी भी ग्रन्थ का कोई भी शास्त्रीय विधान तब तक मान्य नही हो सकता जब तक कि उसका समर्थन पूर्वाचार्यों के ग्रन्थो से न होता हो । मुझे उस वक्त बडा आश्चर्य होता है जब में वर्तमान के कुछ पण्डितो की लिखी हुई छोटी मोटी पुस्तको मे ऐलक के लिये खडा भोजन का कथन पढता हूँ । वगैर शास्त्रो के देखे यो ही किसी सुनी सुनायी वात को शास्त्र का रूप दे देना बहुत ही बुरा है ऐसी पद्धति पण्डितो को शोभा नही देती ।
जो ऐलक मुनियो की बराबरी करने के लिये पूर्वाचार्यों के ग्रन्थो मे आज्ञा न होते भी खडा भोजन करता है और पर्व तिथियों में उपवास नही करता वह शास्त्र विहित चर्या नही करता है । उसकी इस प्रवृत्ति का विचारशील शास्त्रवेताओ को पर्याप्त विरोध करना चाहिये। विज्ञजनो की उपेक्षावृत्ति से ही शास्त्र विरुद्ध रोतियो का जन्म होता है । इति ।
सम्पादकीय नोट - लेखक ने बहुत श्रम करके लेख