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दिगम्बर पराम्परा मे श्रावक-धर्म का स्वरूप ] [ २३६
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खुद तो ऐसा काम नही करता है किन्तु ऐसी वचकता की विद्या अगर वह अपने भाई- बेटे - मित्रो को बताता है तो उसके चौरप्रयोग नामक अतिचार लगता है ।
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(२) जान बूझकर चोरी का माल लेना चौरार्थादान अतिचार कहलाता है ।
(३) सरकारी टेक्स की चोरी करना, टेक्स जितना जुडे उससे थोडा देना या देना ही नहीं अथवा राज्य विप्लव के समय सरकारी नियन्त्रण से निकलकर मनमानी तौर पर पराये धन कहने का प्रयत्न करना विलोप नामक अतिचार है ।
(४) अनुचित लाभ उठाने के लिये बहुमूल्य की वस्तुओ मे उसी रंग रूप वाली अल्पमूल्य की वस्तुये मिला कर उन्हें बहुमूल्य मे बेचना या उनका वजन बढाने को उनमे अन्य वस्तु का मिश्रण कर देना, जैसे दूध मे पानी, अनाज मे ककरी मिला देना आदि । इसे सदृशसम्मिश्र अतिचार कहते हैं ।
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(५) न्यूनाधिक नाप, बाट तराजू आदि से लेन-देन कर उनसे अनुचित लाभ उठाना यह हीनाधिक विनिमान अतिचार है ।
४. ब्रह्मचर्याणुव्रत
जो पाप के भय से ( न कि राजादि के भय से ) न तो पर स्त्रियो को आप सेवन करता है और न दूसरो को सेवन कराता है । किन्तु अपनी विवाहिता स्त्री मे सन्तोष रखता है उसके ब्रह्मचर्याणुव्रत होता है ।
अन्य विवाहकरण, अनगक्रीड़ा, विटत्व, विपुल तृष्णा,