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अलब्धपर्याप्त और निगोद ]
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पचेन्द्रिय के क्षुद्रभवो की सख्या बताई है किन्तु एकेन्द्रिय के क्षुद्रभवो की सख्या नही दी है विना उसके ६६३३६ भवो का जोड नही बैठता है गोम्मटसार जीवकाड गाथा १२२ से १२४ मे यही कथन है वहाँ एकेन्द्रियो के क्षुद्रभवो की अलग सख्या बताई है इस पर सहज प्रश्न उठता है कि क्या भाव पाहुड में यहाँ एक गाथा छूट गई है ? इसका समाधान यह है किमंजित ब्रह्मकृत - "कल्लाणालोयणा" ( माणिक चन्द्र ग्रन्थमाला के सिद्धान्तसारादि संग्रह मे प्रकाशित ) ग्रन्थ मे भी ये ही दो गाथायें ठीक इसी तरह पाई जाती हैं । श्रुतसागर ने भी सहस्रनाम ( अध्याय ६ श्लोक ११९ ) की टीका में पृष्ठ २२७ पर ये ही २ गाथाएं उद्धृत की है। इससे १ गाथा छूटने का तो सवाल नही रहता है । अब रहा एकेन्द्रिय जीवो के क्षुद्रभवो की संख्या का सवाल सो वह परिशेष न्याय से बैठ जाता है । वह इस तरह कि - विकलतय और पचेन्द्रिय के क्षुद्रभवो की कुल संख्या गाथा २६ मे २०४ बताई है इसे ६६३३६ में से बाकी निकालने पर अपने आप शेष ६६१३२ एकेन्द्रिय के क्षुद्रभव हो जाते हैं । कुन्दकुन्द के पाहुड ग्रन्थ सूत्र रूप है अत यहाँ परिशेष न्याय का आश्रय लेकर १ गाथा की बचत की गई है ।
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निगोद का अर्थ साधारण अनन्तकायिक वनस्पति होता है देखो
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(1) अनगार धर्मामृत पृष्ठ २०२ ( माणिकचन्द्र ग्रन्थ
माला )
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निगोत लक्षण यथा - ( गोम्मटसार गाथा १६० से १६२ धवला प्रथम भाग पृष्ठ २७० )