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[ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
एक ही नक्षत्र मे प्रत्येक तीर्थंकर के प्राय पाचकल्याणक होने के सम्वन्ध मे इतना और समझ लेना चाहिए कि उत्तर पुराण में कही कही उस नक्षत्र के स्थान में उसके पास वाले नक्षत्र का नाम दिया है । जैसे श्रेयासनाथ के चार कल्याणक श्रवण नक्षत्र में और मोक्ष उनका धनिष्ठा में लिखा है । पार्श्वनाथ के चार कल्याणक विशाखा में और जन्म उनका अनिलयोग में लिखा है । अनिल कहिये पवनदेव यह स्वाति नक्षत्र का स्वामी माना जाता है । अत यहाँ अनिल का अर्थ स्वाति नक्षत्र होता है । चन्द्रप्रभ के तीन कल्याणक अनुराधा मे और जन्म उनका शक्रयोग मे लिखा है । शक्र का अर्थ इन्द्र यह ज्येष्ठा नक्षत्र का स्वामी देव माना जाता है । अत यहाँ शक्र का अर्थ ज्येष्ठा नक्षत्र होता है । मोक्ष भी इनका ज्येष्ठ मे ही लिखा है । पुष्पदन्त के चार कल्याणक मूल नक्षत्र मे और जन्म इनका जैत्र योग मे लिखा है । जैत्र का अर्थ इन्द्र यह ज्येष्ठा का स्वामी माना जाता है । अत यहाँ जैत्र का अर्थ ज्येष्ठा नक्षत्र होता है इत्यादि । इस प्रकार कल्याणको के एक समान नक्षत्रो के साथ उनके समीप का नक्षत्र का नाम कही किसी कल्याणको मे दिये जाने का तात्पर्य यही समझना चाहिए कि उस तिथि को वे दोनो ही नक्षत्र क्रम से भुगत रहे थे । आप पचांग उठाकर देखिए तो आपको बहुत बार एक ही तिथि मे क्रमवार दो नक्षत्रो के अश भुगतते नजर आयेगे। बल्कि कभीकभी तो एक ही तिथि मे दो नक्षत्रो के अश और पूरा एक नक्षत्र इस तरह तीन नक्षत्र भुगतते मिलेगे । इसलिये समीप के क्षण का नाम होने से उसे भी एक तरह से अन्य समान नक्षत्र के अन्तर्गत ही गिनना चाहिए और एक ही नक्षत्र में