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अलब्धपर्याप्तक और निगोद ]
जाता है, पर्याप्तको मे नही ) अत उक्त लक्षण अव्याप्ति दोष से भी दूषित है ।
एकेन्द्रियो मे महान् दुख बताने की प्रमुखता से ये कथन किये गये है । इन सब उल्लेखो मे "अलब्धपर्याप्त" विशेषण गुप्त है वह ऊपर से साथ में ग्रहण करना चाहिए "छहढाला " ग्रन्थ का वहुत प्रचार है यह विद्यार्थियों के जैन कोर्स मे भी निर्धारित है मत इसके अध्यापन के वक्त निगोद का निर्दोष लक्षण विशेषता के साथ विद्यार्थियो को बताना चाहिए ताकि शुरू में ही उन्हे वास्तविकता का ज्ञान हो सके और आगे वे भ्रम मे नही पडे । टीकाओ मे भी यथोचित सुधार होना चाहिए ।
ग्रन्थकारो ने इस विषय मे अभ्रान्त ( निर्दोष ) कथन भी किये हैं, देखो
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( १ ) स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा की संस्कृत टीका पृष्ठ ३३ ( गाथा ६८ )
सूक्ष्म निगोदीऽपर्या तक. XXX क्षुद्रभवकाल १/१८ जीवि - त्वामृत ।
(२) दौलत बिलास ( पृष्ठ १५ ) - सुधि लीज्यो जी म्हारी । लब्धि अपर्याप्त निगोद मे एक उसास मझारी । जन्ममरण नव दुगुण व्यथा की कथा न जात उचारी । सुधि लीज्यो जी म्हारी |
( ३ ) मोक्षमार्ग प्रकाशक ( तीसरा अधिकार ) प० टोडरमल्ल जी साहब ।
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पृष्ठ ९२ ( एकेन्द्रिय जीवो के महान् दुख )