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[* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
माणा।
काल अनत यहाँ तोहि वीते जब भई मन्द पवाया रे, सरत निकास निगोद सिंधु ते पावर होय न सारा रे, भाई.
(७) बुध महाचन्द्र कृत भजन संग्रह(क) जिनवाणी सरा सुख दानो।
इतर नित्य निगोद माहि जे, जीव अनन्त समानी,
एक सांस अष्टादश जामन-मरण कहे दुखदानी ॥ जिन० () सदा सुख पावे रे प्राणी ।
निगोद बसि एक स्वांस अष्टादस मरण कहानी। सात-सात लत योनि भोग के, पढ़ियो यावर आनी । स०
(८) स्वरूपचन्द जी त्यागीकृत स्वरूप भजन शतक (क) काल मनन्त निगोद विताये, एक उश्वास लखाई।
अण्टादश भव मरण लहे पुनि थावर देह धराई।
हेरत क्यो नहीं रे । निज शुद्धातम भाई । (ख) दुख पायोजी भारी। नित इतर सि युग निगोद मे,
काल अनन्त वितायो । विधिवश भयो उसांस एक मे, अठवस जनमि भरायो॥ दुख पायो जो भारो।
इन उल्लेखो मे निगोद (एकेन्द्रिय) के एक श्वास मे १८ बार जन्म-मरण बताया है । इससे प्राय सभी विद्वानो तक ने एक श्वास मे १८ वार जन्ममरण करना निगोद का लक्षण समझ लिया है जो भ्रान्त है, क्योकि एक श्वास मे १८ वार जन्म-मरण अन्य पचस्थावरो और नसो मे भी जो अलब्धपर्याप्तक हैं पाया जाता है अत उक्त लक्षण अति व्याप्ति दोष से दूषित है। तथा सभी निगोदो मे श्वास के १८ वे भाग मे मरण नही पाया जाता (सिर्फ अलब्धपर्याप्तको मे ही पाया