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[ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
ऐसी समझ से जो सदोप आहार देते है वे परमार्थत मुनियो का अहित तो करते ही है साथ ही दानविधि की परिपाटी भी बिगाडते है । इस से पुण्य बन्ध भी उनको कैसे हो सकता है ? अगर आचार नियमो का उल्लङ्घन करके भी मुनियों की बाधा मेट देने मे ही पुण्योत्पादन होता हो तब तो शीतकाल मे शीत की बाधा मेटने के लिये उन्हे कम्बल भी ओढा देना चाहिए।
यह ठीक है कि-मुनियों को आहारदि देना उनकी वैय्यावृत्य करना उनकी बाधा मेटना यह सब गृहम्यो का कर्तव्य है, गृहस्थो को करना चाहिए किन्तु करना चाहिए आचार शास्त्री मे लिखे दोपो को बचाकर ।
अन्त मे हमारा कहना है कि-उद्दिष्ट के विपय मे शास्त्रकारोका जो अभिमत है वह हमने इस लेख मे दिखाया है। उस अभिमत पर आप आपत्ति करते है कि उद्दिष्ट का ऐसा म्वरूप मानने से तो आहार-औषध-वसतिका आदि दानो की व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी । दान देना श्रावक का कर्तव्य है यह कहना ही निरर्थक हो जायेगा, मोक्षमार्ग ही वन्द हो जायगा।" आपकी इन आपत्तियो से यही समझा जायेगा कि आप मास्त्रकारो का खण्डन कर रहे है । खण्डन करते हुए आपने यही भी लिखा है कि-"उद्दिष्ट की ऐसी व्याख्या करना भारी अन्याय है, यह व्याख्या अनर्थकारी है। ऐसी व्याख्या करने वाले मोक्षमार्ग मे रोडा अटकाते है वे मोक्षमार्ग के घातक मिथ्या दृष्टि है।" आपके ये प्रहार भी सीधे शास्त्रकारो के ऊपर ही पडते है । जिनका आपको खयाल होना चाहिये ।
(१) शास्त्रो मे पाच प्रकार के भ्रष्ट मुनि बताये है