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उद्दिष्ट दोष मीमांसा ]
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१ अवसन्न, २ पाश्वस्थ, ३ कुशील, ४ सयुक्त और स्वच्छद (यथाछद)। देखो भगवती आराधना गाथा १६४६-५० इसकी विजयोदया टीका मे स्वच्छद मुनि के वर्णन मे लिखा है :उद्देशिकादि भोजनेऽदोष इत्यादि निरूपणापरा स्वच्छन्दा इत्युच्यते । अर्थात्-जो मुनि ऐसा कहते हैं कि- उद्दिष्टादि भोजन मे कोई दोष नही है वे भ्रष्ट स्वच्छन्द मुनि हैं।
इस प्रमाण से उन सज्जनो को शिक्षा लेनी चाहिये जो उद्दिष्ट को कोई दोष ही नही बताने की स्वच्छन्दता करते हैं।
(२) पुरुषार्थ सियुपाय मे अमृतचन्द्र सूरि ने भी अतिथि सविभाग के वर्णन मे स्पष्ट लिखा है-कृतमात्मार्थ मुनये ददाति भक्त मिति भावितस्त्याग. ॥१०४॥
अर्थात्श्रावक मुनि के लिये भोजन नही बनावे किन्त अपने लिए बनाये गये भोजन मे से ही मुनि को आहार दान दें।
(३) श्री चूडीवालजी ने जो यह लिखा कि-"गिरनार यात्रा मे कुन्दकुन्दाचार्य के साथ गाडी घोडे डेरे तम्बू आदि लेकर श्रावकगण गये थे, जो मुनियो के निमित्त आहारादि बनाते थे।
सो कुन्दकुन्दाचार्य के तो चारण ऋद्धि थी जिसके बल से वे विदेह क्षेत्र मे सीमधर स्वामी के समवशरण मे गये थे ऐसा शिलालेखादि मे लिखा है अत ऋद्धि के बल से ही वे क्षणभर मे गिरनारजी गये होगे। उनके निमित्त गाडी घोडे लेकर श्रावक संघ के उनके साथ जाने की बात लिखना उन महर्षि का अवर्णवाद है।