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पूज्यापूज्य-विवेक और प्रतिष्ठापाठ ] [ ६६७ जिनके स्मरण मात्र से सभी विघ्न और सकट नष्ट हो जाते हैं। कहा भी है
विघ्नौघा. प्रलयं यांति शाकिनी भूत पन्नगा । विष निविषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे ॥
आशाधरजी ने भी अनगार धर्मामृत मे ऐसा ही कहा है, देखो अ०६ श्लोक २६ ।
अब रही शासनदेवो के स्वय विघ्न करने की बात, मो वे तो जिनधर्मी होते है, चे स्वय कैसे विघ्न कर सकते हैं ? अतः आपका ऐसा लिखना भी गलत ही है।
आपने जो यह लिखा कि-"आशाधरजी ने रागी-द्वषी देवो और सन्यासियो (कुदेव कुगुरुओ) की पूजा सन्मानकी दृष्टि से बताईहै नमस्कार पूज्य दृष्टि से नही तो फिर आप प्रतिष्ठादि मे नवग्रहादि अरिष्ट निवारणार्थ सभी अजैन सम्प्रदायो के साधुओ को बुलाकर उनकी पूजा क्यो नहीं करते ? बतायें ।
आशाधर जी ने रागी-द्वषी देवो की पूजा के साथ उनके लिए नमस्कार भी लिखा है । देखो-प्रतिष्ठा सारोद्धार अध्याय ३ श्लोक ५६ और १६२ मे क्रमशः अच्युता देवी और वायु (दिग्पाल) को 'प्रणौमि' शब्द से नमस्कार करना लिखा है। अध्याय ४ श्लोक २१६ मे यक्षिणी को 'दुरित निवारिणी' लिखा है । अ० ६ श्लोक २५ के मन्त्र मे नन्दा रोहिणी देवियो के लिए 'नम ' (नमस्कार करना) लिखा है । इसी तरह अधो और उर्व दिशा के दिग्पाल नाग एव ब्रह्म के लिए भी 'नम.' लिखा है।
__ अत. इससे इन रागी-द्वषी देवो के लिए स्पष्टत पूज्यत्व बुद्धि सिद्ध होती है और आपने जो वकालत की है, वह व्यर्थ है।