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साधुओं की आहारचर्या का समय ] [ ५७१
अर्थ-सूर्योदय मे देववन्दना करके, २ घडी दिन चढने पर श्रुतभक्ति व गुरुभक्ति का पाठ पढकर स्वाध्याय का प्रारम्भ करे और मध्याह्न के होने मे जब दो घडी का समय बाकी रहे तव ही यानी मध्याह्न के समीप काल मे श्रुतिभक्ति के पाठ पूर्वक स्वाध्याय का विसर्जन करदे । फिर वसतिका से दूर जाकर मलमूत्र करके (यहां ऐसा कुछ आभास होता है कि आम तौर पर मुनियो के मलोत्सर्ग का भी यही समय है, न कि प्रभात काल)। अपने शरीर के अगले पिछले भाग की प्रतिलेखना कर, हाथ पैर धोकर कमण्डलु पीछो लेकर मध्याह्न की देववन्दना किये वाद यह देखे कि बालको ने पेटभर भोजन कर लिया है, भिखारी भीख मागते फिर रहे है, काकादिको को खाना डाला जा रहा है, (इस आर्यावर्त देश की यह प्राचीन प्रथा थी कि मध्याह्न के वक्त काक, श्वान आदि को खाना डाला जाता था) और अन्य मत के साधु भी भिक्षाथ विचर रहे हैं। इत्यादि लक्षणो से भिक्षा लेने का समय जानकर जिस वक्त कि रसोई का धुआं और मुशलादि का शब्द भी न हो रहा हो, जैनमुनि गोचरी के लिए निकले ।*
भिक्षावेला का यह विवरण जिस क्रम के साथ यहाँ दिया गया है उससे बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि-जैनमुनि के भोजन का काल दिन के मध्याह्न मे है। मध्याह्न से दो घडी
* श्वे. विशेषावश्यक ग्रथ मे भी ऐसा ही लिखा है देखियेनिद्धमग च गाम महिला थूम च सुण्णय देख । नीय च कागा बोलें ति जाया मिक्खस्स हरहा।।२०६४॥ ७२७-१८६ (अर्थात्-धूम्ररहित गाव और स्त्रियो रहिन पनघट को लक्षिनकर और कीवो को नीचे माते देख कर भिक्षाकाल का निश्चय करना चाहिये )