________________
५७२ ]
[ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
पहिले स्वाध्याय को समाप्त करना और मल मूत्रादि क्रिया से निवृत्त हो मध्याह्न की देववन्दना किये बाद गोचरी पर उतरना इत्यादि उल्लेखो से मध्याह्न के समय मे फेरफार होने की तनिक भी गुंजाइश नही है । अन्यमत के सन्यासियो के भोजन के वाबत जो टीकाकर ने लिखा है सो मनुस्मृति मे इस विषय मे निम्न कथन मिलता है
एककालं चरेक्ष्य न प्रसज्जेत विस्तरे ।
मैक्षे प्रसक्तो हि यतिविषयेष्वपि सज्जति ॥५५॥ सन्नमुशले सन्नमुशले व्यंगारे
बिधूमे
भुक्तवज्जने । वृत्त शरावसंपाते मिक्षां नित्यं यतिश्चरेत् ॥५६॥ अलाभे न विषादी स्याल्लाभे चैव न हर्षयेत् ॥ २०६ ॥
अर्थ -- सन्यासी दिन मे एकबार भिक्षा करे । अधिक बार न खावे | क्योंकि अधिक बार खाने से कामादि विषयो मे मन जाता है। रसोई का धुवा निकल गया हो, मुशल के कूटने का शब्द बन्द हो चुका हो। आग बुझ गई हो, सब भोजन कर चुके हो, झूठी पत्तले मिट्टी के सकोरे आदि फेंक दिये हों ऐसे समय मे सदा यतिको भिक्षा के लिये जाना चाहिये । भिक्षा न मिलने पर खेद और मिलने पर हर्ष न करे । *
मनुस्मृति के इस कथन से ऐसा ध्वनित होता है किगृहस्थी के सब लोग भोजन कर चुकने के बाद अगर भोजन बच जाये तो वह सन्यासियों के लेने योग्य होता है ।
* यही बात कण्व (वैदिक ऋषि) ने लिखी है विधूमे मन्नमुशले व्यगारे भुक्तवज्जने । कालेऽपराण्हे भूविष्ठे भिक्षाटन मया चरेत् ॥
( इसमें स्पष्ट तथा अपरान्ह काल लगने पर भिक्षाटन बताया है ।)
-