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________________ E The - -- U.. - - Ta r 4 ५४० ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ द्रव्येन्द्रियो के होने से इन्द्रियो के विषय भूतपदार्थों का उन इन्द्रियो के साथ सपर्क (उपलब्धि) होता है। वैसी बात कार्मण शरीर के सम्बध मे नही है । क्योकि कार्मण शरीर के द्रव्येन्द्रिये नही होती है । इन्द्रियो के विषयभूत पदार्थों का सम्पर्क भी वहाँ नही होता है । इसे सम्पर्क कहो या शब्दादि की उपलब्धि कहो इसी का नाम उपभोग है । ऐसे उपभोग का कार्मण शरीर के अभाव होने से उसे शास्त्रो मे निरुपभोग बताया है। ऐसी ही पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि मे और अकलक ने राजवातिक मे प्रतिपादन किया है । यथा "इन्द्रियप्रणालिकथा शब्दादीनामुपलब्धिरुपभोग , तदभावान्निरुपभोगम् । विग्रहगती सत्यामपि इन्द्रियलब्धी द्रव्येन्द्रियनिर्वृ त्यभावा छाव्दाधुपभोगाभाव इति ।" अर्थ-इन्द्रियद्वार में शब्दादि की उपलब्धि होना उपभोग कहलाता है। उसके अभाव को निरुपभोग कहते हैं। विग्रहगति में जीव के लब्धिरूप भावेन्द्रियके होने पर भी कार्मणशरीर के द्रव्येन्द्रियो की रचना का अभाव होने से उसके शब्दादिको की उपलब्धि का अभाव है। भावार्थ-औदारिकादि शरीरो मे द्रव्येन्द्रियो की रचना होने के कारण शब्दादि की उपलब्धि होती है उससे वै शरीर सोपभोग माने जाते है। किन्तु विग्रहगतिमे कार्मण शरीर के साथ रहने वाले जीव के लब्धिरूप भावेन्द्रिय के होते भी कार्मण शरीर निरुपभोग ही है। क्योंकि उसके द्रव्येन्द्रियो की रचना न होने से वहीं शब्दादि की उपलब्धिका अभाव है। सीधी सी बात है कि-कार्मणशरीर के जब कर्ण आदि इन्द्रियो का सद्भाव ही नहीं है तो शब्दादि विषय किसमे प्राप्त हो ? विषयो का प्राप्त न होना ही कार्मण शरीर के लिये निरुपभोग कहा जाता है। -
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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