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तत्वधि श्लोकवार्तिक की ... ]
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इसी सूत्र की व्याख्या भास्कर नंदी ने निम्न शब्दों
मे की है
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"इन्द्रियद्वारेण शब्दादीनामुपलब्धिरुपभोग । उपभोगान्निष्क्रात निरुपभोग कार्मण शरीरमुच्यते । तत् विग्रहगता - विन्द्रिय लब्धौ सत्यामपि द्रव्येन्द्रितय निष्पत्यभावा च्चब्दाद्यपलभनिमित्त न भवति ।"
अर्थ - इन्द्रियवार से शब्दादिको की प्राप्ति उपभोग कहलाता है। उपभोग से रहित कार्मणशरीर निरुपभोग कहा जाता है । वह कार्मण शरीर विग्रहगति मे जीव के लब्धिरूप भावेन्द्रिय के होते हुए भी द्रव्येन्द्रियो की रचन का अभाव होने से शब्दादिकी प्राप्ति मे निमित्तभूत नही है ।
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इस प्रकार भाष्यकारो के इन उद्धरणो मे जो कहा गया है उससे आपके कथन की संगति नही बैठती है । " कार्मणशरीर किसी की भी इन्द्रियो का विषयभूत न होने से वह निरुपभोग है ।" ऐसा जो अर्थ आपने प्रगट किया है वैसा अर्थ यदि भव्य - कारो को इष्ट होता तो वे यह नही लिखते कि द्रव्येन्द्रियो की रचना का अभाव होने से शब्दादि का उपभोग नही है | आपके द्वारा किया हुआ अर्थ तो तब ठीक होता जब सूत्र मे 'निरुपभोग्य शब्द होता किन्तु सूत्रकार ने 'निरुपभोग, शब्द रखा है जिसका अर्थ होता है "न उपभोगो विद्यते यस्य तत्त्" अर्थात् जिसके उपभोग क्रिया नही होती यानी जो स्वय उपभोग नहीं करता, यही विवेचन सभी भाष्यकारो और टीकाकारो ने किया है । आशा है आप इस विषय पर पुन विचार करेंगे ।
दूसरा स्थल है इष्वाकार पर्वतो का स्थान बताते हुये
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