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श्रावक की ११वी प्रतिमा ]
[ ५४६ कोपीन के साथ चादर ओढ़ने का भी उल्लेख करके दो वस्त्र रखने का विधान किया है। इससे कुछ मतभिन्नता जाहिर होती है। परन्तु अल्पवस्त्र रखने के उद्देश्य मे कोई फर्क नही आया है। ओढ़ने पहनने को धोती लम्बी रखनी पड़ती है। लगोट और चादर दो सख्या होकर भी वस्त्र का विस्तार (माप) यहाँ धोती से अधिक न हो कर कुछ कम ही हुआ है।
कुन्दकुन्द समन्तभद्र और चामुण्डराय ने ऊपर यह कही नही बताया कि इस प्रतिमावाला बालो का लौच करे या क्षौर करावे । किन्तु उनका कुछ नहीं लिखना ही यह बताता है कि उनको इसके लिये क्षौर कराना ही इष्ट था। क्योकि जो नीचे की प्रतिमाओ मे होता आ रहा है वही यहा भी है। इसी अभिप्राय से उन्होने इस सम्बन्ध मे कुछ नही लिखा है। इस तरह अमितगति ने केशो के मुडन की बात भी अपनी ओर से नही लिखी है। जो पूर्वाचार्यों का अभिप्राय था उसे ही स्पष्ट किया है।
यहाँ अमितगति ने भिक्षा को अमृतवत् जरामरणनाशिनी लिखा है । वह खास ध्यान देने योग्य है । ऐसा इसलिये लिखा है कि-कोई यह न समझ ले कि एक उत्कृष्ट श्रावक भिक्षा के लिये पात्र हाथ मे लेकर घर २ फिरता फिरे यह तो उसके पद के गौरव को घटाने वाला काम है। उसके समाधान के लिये उन्होंने उक्त कथन करके यह बताया है कि वह भिक्षा नही वह तो अमृत है । जैसे अमृत के पीने से जरामरण का नाश होता है। उसी तरह उस भिक्षा को खाकर वह श्रावक भी देशव्रतो को पूर्णतया पालन करता हुआ आगे मुनि हो उस मोक्षस्थान को प्राप्त होगा जहाँ जानेवाला अजर अमर हो जाता है।)