________________
५४८
।
। * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
इन चामुण्डराय के ही वक्त में होने वाले अमितिगति ने इस प्रतिमाधारी के लिये सुभापित रत्नसदोह के ग्लो. ८४३ में और उपासकाचार के परि०७ के लोक ७७ से नवकोटिसे विशुद्ध आहार लेने का विधान करते हुये इस प्रतिमा का विशेष म्वरूप उपासकाचार के पवे परिच्छेद में इस प्रकार किया है
वराग्यस्य परां भूमि संयमस्य निकेतनम् । उत्कृष्ट. कारयत्येष नुउन तुडमुडयो ॥३७॥ केवल वा सवस्त्र वा कोपोन स्वीकरोत्यसों। एकस्थान्नपानीयो निदागह परायण ॥७॥ स धर्मलाभशट्वेन प्रतिवेश्म सुधोपमाम् । सपानी याचते भिक्षा जरामरण सूदनीम् ॥७॥
अर्थ-यह उत्कृष्ट श्रावक वैराग्य की परम भूमि और जयमका स्थान ऐमा दाढी मूछ-शिरके वालोको मुण्डन(हजामत) कराता है। वह केवल लगोट या वस्त्र (चादर) महित लगोट रखता है। अपनी निंदागहोंमे तत्पर रहता हुआ एक स्थान पर अन्न पानी जीमता है। यानी भिन्न २ घरों से पात्र ने भोजन लाकर एक स्थान पर जीमता है। वह पात्र लेकर घर २ प्रति धर्मलाभ शब्द वोलता हुआ अमृततुल्य जरामरण नशिनी भिक्षा को मागता है।
कुन्दकुन्द ने भिक्षा के लिये भापा समिति सहित सपात्र घूमने की कही है। व समन्तभद्र ने चेलखड धारण करने की कही है । उसी का अतिगति ने यहीं खलासा किया है। ऊपर जिनसेन और चामुण्डराय ने एक वस्त्र धोतीमात्र रखने का आदेश दिया है। यहा अमित गति ने केवल कौपीन या कभी
ADA
-
-
-
-
-
-
- AAP