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[ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
मालूम होना चाहिये कि साधुओ की भिक्षावृत्ति के भ्रामरी, गर्नपूरण आदि नामो मे एक नाम गोचरवृति ( गाय के समान आहारचर्या) भी आता है । इसे ही गोचरी नाम से भी बोलते है । गोचरी का अर्थ है साधु की भिक्षा । यह अर्थ आम जनता मे भी प्रसिद्ध है । आदिपुराणकार ने भी यहाँ इसी अर्थ में गोचर शब्द का प्रयोग किया है। अनगार धर्मामृत संस्कृत के पृष्ठ ५३६,४०६, ६५०, ५७६ मे भी गोचार शब्द भिक्षा अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । गोचार शब्द का प्रयोग प्रभात अर्थ मे कही भी किसीने नही किया है । शायद अनुवादक पं० पन्नालाल जी ने प्रभात मे जङ्गल मे चरने को गाये उछेरी जाती है इस अभिप्राय से गोचार का प्रभात अर्थ किया हो तो इसके लिए गोसर्ग शब्द आता है, न कि गोचार | और गाये उछेरने के समय तो गृहस्थ के यहाँ रसोई भी तैयार नही होती है । वह समय तो श्रावको के पूजापाठ दर्शनादि का होता है एव मुनियो के भी वन्दनादि कृतिकर्म का होता है । उस वक्त मुनि की आहारचर्या कैसी ? इसलिए आदिपुराण के उक्त श्लोक मे प्रयुक्त गोचार शब्द का प्रभात अर्थ करना बिल्कुल गलत है । प० लालारामजी ने भी गोचार का भिक्षा अर्थ किया है। वचनिकाकार प० दौलतराम जी ने भी इसका प्रभात अर्थ नही
किया है ।
मूलाचार पिण्डशुद्धि अधिकार मे एक गाथा निम्न प्रकार से लिखी मिलती है
सूरुदयत्थमणादौ णालीतियवज्जिदे असणकाले । तिगदुग एगमुहुत्ते जहण्णमज्झिम्म मुक्कस्से ॥७३॥
अर्थ - सूर्योदय वाद से ३ घडी तक का और सूर्यास्त से