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[ ★ जेन निबन्ध रत्नावली भाग २
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प्राप्ति हो जायगी, धर्माचरण की क्या जरूरत ? फिर तो क्षल्लकादिक और महाव्रती मुनियो को भी आपके इस लोकव्यवहार-सत्कार का पालन करना चाहिए अन्यथा उनके व्रत और सम्यक्त्व मे अवश्य हानि हो जायगी । इस तरह गृहत्यागियो को भी आपने पुन ससार मे घसीटने का प्रयत्न किया है । आपके इस अपसिद्धात ने तीर्थंकरों तक को अपने लपेटे मे ले लिया है, क्योकि तीर्थंकर गृहस्थावस्था मे भी किसी को नमस्कार पूजा रूप लौकिक शिष्टाचार नही करते है । ऐसी हालत मे क्या उनके सम्यक्त्व और व्रत में हानि हो जायगी ? कदापि नही । इस तरह आपका कथन अत्यन्त अविचारित रम्य सिद्ध होता है ।
आपके महामान्य प० आशाधरजी ने व्रतो की बात तो जुदा दार्शनिक श्रावक तक के लिये रागद्वेषी शासनदेवादि की पूजा का सर्वथा निषेध किया है और आप इस शासन देव पूजालौकिक सत्कार के बिना श्रावक के व्रत व सम्यवत्व मे ही अवश्य हानि होना बताते हैं । किस का कथन ठीक है आप ही बताये ?
शासन देव पूजा की धुन मे आपने कितना शास्त्र विरुद्ध लिख दिया है, इसका आपको कुछ ध्यान ही नही रहा है।
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आपने किसी भी साधु-सन्यासी का सत्कार करना लौकिक व्यवहार मे लिखा है यह भी गलत और आपत्तिजनक है, क्योकि वे साधु सन्यासी किसी (अंजन धर्म-सम्प्रदाय के प्रति निधि होते है ) उनका पूजा सत्कार गुरुमूढ़ता में गर्भित होगा । आपने इस तरह लौकिक व्यवहार की धुन मे गुरुमूढता का भी पाषण कर दिया है ।
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