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अलब्धपर्याप्तक और निगोद ]
सिर्फ इन आठ शरीरो मे निगोदिया जीव नही होते, शेष सब शरीरो मे निगोद जीव होते है । इसलिए अमृतचन्द्र स्वामी ने पुरुषार्थ सिद्धयुपाय के निम्न श्लोक मे मास मे निगोद जीव होने का कथन किया है
आमास्वपि पक्वस्वपि विपच्यमानासु मांस पेशीषु । सातत्येनोत्पादस्तज्जातीनां निगोताना ॥ ६७ ॥
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अर्थ - कच्ची पक्की, पकती हुई मास की डलियो मे मास जैसे वर्ण-रस-गध वाले निगोद जीव निरन्तर ही उत्पन्न होते रहते है ।
पुरुषार्थ सिद्धयुपाय के इस श्लोक में प्रयुक्त "तज्जातीना निगोताना " का अर्थ कोई ऐसा करते है कि - जिस जाति के जीव का माँस होता है उसमे उसी जाति के जीव पैदा होते है । जैसे बैल का माँस हो तो उसमें बेल जैसे ही सूक्ष्म त्रस जीव पैदा होते है ।" ऐसा अर्थ करने पर जब निगोद शब्द के साथ सगति बैठती नही, क्योकि निगोदिया जीव त्रस होते नही तव वे निगोत शब्द का लब्ध्यपर्याप्तक अर्थ करके संगति बैठाने का प्रयत्न करने लगते है पर निगोत का लब्ध्यपर्याप्त अर्थ किसी शास्त्र मे देखने में आया नही है । यह गडवड 'तजातीना' शब्द का ठीक अर्थ न समझने की वजह से हुई है । इसलिए 'तज्जातीना' का सही अर्थ यो होना चाहिए कि - " उसी मास की जाति के ( न कि उसी जीव की जाति के ) अर्थात् उस मास का जैसा वर्ण-रस-गध है उसी तरह के उसमे निगोद जोव पैदा होते है ।" ऐसा अर्थ करने से कोई असंगतता नही रहती । जिस प्राकृत गाथा की छाया को लेकर पुरुषार्थ सिद्धयुपाय मे उक्त पद्य रचा गया