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[★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
है उस गाथा मे भी मास मे निरन्तर निगोद जीवो की ही उत्पत्ति वताई है । वह गाथा यह है
आमासु अ पक्कासु अ विपच्चमाणासु मंसपेसीसु । सययं चिय उववाओ भणिओ उ निगोअजीवाणं ॥
यह गाथा श्वेताम्वराचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र के तीसरे प्रकाश में उद्धृत की है । स्याद्वादमजरी के पृष्ठ १७६ पर भी यह गाथा उद्धृत हुई है । तथा पुरुषार्थ सिद्धयुपाय की पण्डित टोडरमल जी साव ने वचनिका लिखी है । उसमे उक्त पद्य न० ६७ का अर्थ इस प्रकार किया है- 'आली होउ, अग्निकरि पकाइ होउ, अथवा पकती होउ, कछु एक पकी होउ, ऐसे सबही जे मास की डली तिनवर्षे उसही जाति के निगोदिया अनन्ते जीव तिनका समय-समय विषै निरन्तर उपजना होय है । सर्व अवस्था सहित मॉस को डलिनी विषै निरन्तर वैसे ही माँस सारिखे नये-नये अनन्त जीव उपजे है ।"
यहाँ टोडरमल जी साव ने भी माँस मे मांस जैसे ही निगोद जीव की उत्पत्ति लिखी है । न कि लब्ध्यपर्याप्तको की । और देखो सागारधर्मामृत अ० २ श्लोक ७ मे प० आशाधर जी भी माँस मे प्रचुर निगोद जीव वताते हुए निगोत का अर्थ साधारण - अनन्तकाय लिखते है । लब्ध्यपर्याप्तक नही लिखते । यहाँ यह भी समझना कि - जैसे स्थावर वनस्पतिकाय में जो बादर निगोदजीव पैदा होते हैं । वे भी तो उस वनस्पति के रूप-रस-गन्ध जैसे ही पैदा होते हैं । वैसे ही त्रस जीवो के कलेवरो मे समझ लेना चाहिए। यह एक जुदी बात है कि - तिर्यञ्चो के मास में निगोद जीवो के अतिरिक्त लब्ध्यपर्याप्तक और पर्याप्तक कृमि आदि तस जीव भी पैदा