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[ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
कृत टीका में है । ) जबकि बादर निगोद सातवे नरक के नोचे सम्भव नही है क्योकि वह एक राजू स्थान निराधार है । और 'आधारे धूलामो' सूत्रानुसार वादर साधार रूप मे ही होते है, निराधार रूप मे कदापि नही । अत नित्य निगोद की अन्यत्र भी विद्यमानता होने से इस स्थान को ही नित्यनिगोद का वताना ठीक नही है । इसके सिवा सातवे नरक के नीचे सूक्ष्म निगोद हो नही अन्य भी सूक्ष्म स्थावर जीव पाये जाते हैं । ऐसी हालत में उसे एक मात्र नित्य निगोद का ही क्षेत्र बताना भी समुचित नही है । अत सातवें नरक के नीचे न तो एक मात्र नित्य निगोद या इतर निगोद है किन्तु निगोदादि पच सूक्ष्म स्थावर है ऐसा मानना ही परिपूर्ण और निर्दोष होगा । और सव मान्यता एकागी एव असम्यक् होगी । “त्रिलोक भास्कर " ( पृष्ठ ३ ) मे आर्यिका ज्ञानमती जीने भी सातवे नरक के नीचे नित्य निगोद बताया है वह भी इसी तरह सदोष है ।
इससे यह भी प्रगट होता है कि जिस प्रकार प्रत्येक वनस्पति के आश्रित वादर निगोद होने से वह सप्रतिष्ठित कहलाती है उसी तरह त्रस जीवो के शरीरों के आश्रित भी वादर निगोद जीव रहते हैं अत सकाय भी संप्रतिष्ठित कहलाता है गोम्मटसार की उक्त गाथा १९६ मे यह भी लिखा है कि- पृथ्वी - जल अग्नि वायु इन ४ स्थावरो के शरीर, तथा देव शरीर नारकी शरीर, अहारक शरीर, और केवली का शरीर
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११ अनागार धर्मामृत पृष्ठ ४६१ मे मलपरीषह प्रकरण मे लिखा है - उद्वर्त्तन ( उबटन, मैल उतारने) मे बादर प्रतिष्ठित निगोद, जीवो का घात होता है ।