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[ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
आचार्यजी ने जनसमूह के बीच अपने हाथ से क्षुल्लिका का केशलींच किया यह अत्यंत दूषित पद्धति है ।
इन्द्रनदि ने "नीतिमार समुच्चय" मे लिखा है:
न योषित. स्पृशेदयोगी, काष्ठ चित्र कृतापि च । किं पुन: स्पशनं तासां यासां स्मरणमा पदे ॥ ६४ ॥
अर्थात् काष्ठ कागज आदि पर बनी स्त्री मूर्ति का भी साधु स्पर्श न करे क्योकि स्त्रियों का स्मरण मात्र ही अनेक आपत्तियो का आविर्भाविक है फिर उनके स्पर्श की क्या कथा वह तो किसी भी तरह विधेय नहीं ।
चिवत्थामपि संस्पृश्य, योषितं नैव मुज्यते । तस्मिन्नति भुंजयेत् षष्ठं स्यात्पापनाशनम् ॥ ६४ ॥
अर्थात् - स्त्री के चित्र का भी स्पर्श हो जाय तो साघु उस दिन भोजन का त्याग करे और शुद्धि के लिए बेला ( दो दिन तक उपवास) करे ।
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मूलाचार के चौथे समाचाराधिकार गाथा १६५ मे बताया है
आर्यिका आचार्य साधु की वंदना भी ५-७ हाथ दूर रहकर करे ।
प्रथम तो क्षलिका का केशलोच ही शास्त्र विरुद्ध है दूसरे वह जनसमूह मे करना और भी विरुद्ध है तीसरे किसी भी पुरुष के हाथ का स्पर्श होना तो अत्यत ही दूषित पद्धति को प्रश्रय देना है। समाज को साहस के साथ ऐसी शालीनता रहित...
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