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जैन कर्म सिद्धात ]
[ ४६६ इस अवस्था मे न तो जीव के असली रूप का पता पडता है और न पुद्गल के असली रूप का।
कर्म और आत्मा का मेल कुछ ऐसे ढग का समझना चाहिए कि-दोनो एक दूसरे मे मिलकर एकस्थानीय बन जाते हैं। फिर भी दोनो का अपना-अपना स्वरूप अलग-अलग रहता है । न तो चेतन आत्मा पोद्गलिक कर्मो के मेल से अचेतन बनता है और न अचेतन कर्म चेतन बनता है। जैसे सुवर्ण और चांदी को मिला देने से दोनो एकमेक हो जाते है । तथापि दोनो धातुओ का अपना-अपना गुण अपने ही साथ रहता है- गुण एक दूसरे मे नही मिलते है। इसीलिए जब न्यारगर से उनका शोधन कराया जाता है तो वे दोनो धातुयें अलग-अलग हो जाती है । उसी तरह आत्मा का भी जब तपस्या के द्वारा शोधन होता हे तब आत्मा और कर्म दोनो अलग-अलग हो जाते हैं। फर्क इतना ही है कि शोधे हुए सोने मे कोई चाहे तो फिर भी चांदी का मेल किया जा सकता है। किन्तु शुद्ध आत्मा मे पुन कर्मों का मेल नही हो सकता है । इस फर्क का भी कारण यह है किआत्मा के साथ कर्मों का मेल किसी वक्त मे किया हुआ नही है वह अनादि से चला आ रहा है इसलिए वह मेल एक बार पूर्णतया पृथक् हो जाने पर पुन. उनका मेल बनता नही है। यदि सुवर्ण और चांदी का मेल भी इसी तरह अनादि का होता तो उस मेल के भी पूरे तौर पर फट जाने पर पुन. उनका मेल भी नही हो सकता था। दो विजातीय द्रव्य जब अनादि से मिले हुए चले आते है तो उनके पृथक हो जाने पर पुन. वे नही मिलते है । जैसे खान मे से निकला हुआ सोना विजातीय द्रव्य से मिला हुआ रहता है। एक बार सोने मे से उस विजातीय द्रव्य के पूर्णतया अलग हो जाने पर फिर सोना उस विजातीय