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जैन धर्म श्रेष्ठ क्यो है ? ]
[ રૂછયું जल का स्वभाव ठण्डा है किन्तु अग्नि के प्रसंग से गर्म भी हो जाता है । इससे सिद्ध है कि अगर आत्मा का स्वभाव क्रोधादि मय होता तो वह सदा क्रोधादि रूप ही बना रहता; पर ऐसा निरंतर पाया नहीं जात्ता क्योकि वस्तुन उसका असली स्वभाव क्षमादि शात रूप है। और जैन धर्म भी इसे उसी स्वभाव मे रहने की प्रेरणा करता है। अत जो आत्मा का स्वभाव है वही जैनधर्म है। इस लिए उसे नया नहीं कह सकते । और इसी कारण जैनधर्म की उत्पत्ति का पता लगाना असभव है।
वर्तमान काल कलियुग है। इस निकृष्टकाल से पूर्ववर्ती काल उत्तरोत्तर उत्कृष्ट मान लेने पर जैन धर्म जैसा श्रेष्ठ धर्म भी पूर्वकाल मे अधिकाधिक रूप में माना जाना चाहिये । क्योकि उत्तम काल मे ही उत्तम चीज का पाया जाना न्याय सगत है । वर्तमान मे जैनधर्म का हीन-प्रभ दिखाई देना भी उक्त मान्यता को पुष्ट करता है। यह बात हम ही अपनी तरफ से कह रहे हों सो नही है किन्तु प्राचीनता का दम भरनेवाले इतर ग्रथ भी उसके साक्षी है । यथा
१-शकराचार्य महाराज स्वय स्वीकार करते हैं कि जैनधर्म अति प्राचीन काल से है । वे वादरायण व्यास के वेदान्त सूत्र के भाष्य मे कहते है कि दूसरे अध्याय के द्वितीय पाद के सूत्र ३३ से ३६, जैनधर्म हो के सम्बन्ध मे हैं। शारीरिकमीमासा के भाष्यकार रामानुज जी का भी यही मत है ।
२-योगवाशिष्ठ वैराग्य प्रकरण के अध्याय १५ श्लोक ८ में रामचन्द्रजी ने जिनेन्द्र के सदृश शान्त होने की इच्छा प्रकट की है।
३- वाल्मीकि रामायण बालकाड सर्ग १४ श्लोक २२ मे