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[ ★ जैन निवन्ध रत्नावलो भाग २
सिद्धात की दृढ असलियत का उसे पूर्ण निश्चय है और इसीलिये वह अपने अनुयायियो को जोर देकर आदेश करता है कि उसपर श्रद्धान करने पर ही तुम्हारे सम्यक्त्व नाम का वह चिह्न प्रकट हो सकेगा जो कल्याण का प्रथम सोपान है ।
प्राचीनता
यह कोई नियम नही है कि जो प्राचीन हो वही सत्य हो । प्राचीनता और समीचीनता मे कोई सवध नही है । अगर सत्य प्राचीन हो सकता हो तो असत्य भी क्यों न प्राचीन माना जाय । अनुकूल-प्रतिकूल का द्वंद्व तो सदैव वना रह सकना लाजिमी है। फिर भी लोगो की अक्सर यह धारणा होना अनुचित नही कही जा सकती कि अमुकमत श्रेष्ठ था तो पहिले क्यो नही था अब ही नया क्यों हुआ । पूर्व कालीन मनुष्य अधिक विवेकी हुये हैं यह मार्ग क्यो नही सूझा। एक तरह से इस प्रकार का कथन भी उपेक्षणीय नहीं हो सकता । इसीलिये हरएक मत अपने आपको सबसे पूर्व का बतलाया करता है ।
'जैनधर्म की प्राचीनता सिद्ध करने को किसी उलझन में पडने की आवश्यकता नही रहती । क्योकि जैनधर्म तो आत्मा का निज स्वभाव है । जब कि आत्मा अजर-अमर सदैव से चला आता है तो उसीके साथ जैनधर्म भी सदैव का रहा यह निर्विवाद है । आत्मा का खास स्वभाव काम, क्रोधादि रहित है, क्योकि स्वभाव सदा द्रव्य के साथ बना रहता है । आप देखेंगे कि मनुष्य सदैव निरन्तर क्रोधादि रूप नही रहता है। किसी कारण विशेष से उसके कुछ समय तक वैसा विकार हो जाता है, कारण के हटने पर पुन: उसी शात रूप मे आ जाता है । जैसे