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चामुण्डराय का चारित्रसार ।
[ १०१ यातिक से चचित है। एक तरह से इसे राजवाहिक का चारित्र भाग कहना चाहिए। __ यहां यह कह देना भी अनुचित न होगा कि मुद्रित राजवार्तिक मे अशुद्धियो की भरमार है। यही क्या अन्य अनेक जैनग्रन्थो का प्रायः यही हाल है। खासकर सैद्धातिक ग्रन्थो की छपाई मे तो पूर्ण ध्यान इस बात का अवश्य रहना चाहिए कि कही कोई अशुद्धि न रहले पाये। किन्तु क्या कहा जाय. जेनग्रन्थ-प्रकाशको का अजब हाल है। उनकी कार्यप्रणाली इस सम्बन्ध मे बडी ही अव्यवस्थित है जो महान खेदजनक है।
चारित्रमार से राजवातिक की कई अशुद्धियाँ दूर की जा सकती हैं। चारित्रसार भी अशुद्धियो से खाली नहीं है। इसकी अशुद्धियाँ भी राजवातिक से दुरुस्त हो सकती हैं । क्योकि दोनो में अशुद्धियाँ एक स्थानीय नहीं हैं। अस्तु,
कुछ लोग शायद यहाँ यह कहने का भी दु साहस करें कि "अकलकदेव ने ही चारित्रसार मे मसाला लेकर राजवातिक मे रक्खा हो" ऐसा कहने वालो को यह समझ रखनी चाहिए कि अकलकदेव चामु डराय से लगभग दो सौ वर्ष पहिले हुए हैं। तब उन्होने चामु डराय की कृति मे से कुछ लिया हो यह कैसे सम्भव हो सकता है । इसके अलावा जिनसेन ने आदि पुराण मे अकलकदेव का स्मरण किया है । और चामुडराय ने अपने चारित्रसार पृष्ठ १५ मे "तथा चोक्त महापुराणे" कहकर आदिपुराण का एक पद्य उद्धृत किया है। इससे भी चामुडराय अकलकदेव के उत्तरवती सिद्ध होते है। बल्कि