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[ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
तपोवर्णन (रा० वा० अ०६ सूत्र १६-२०-२२, किस दोप में कैसा प्रायश्चित लेना यह रा. वा० अ०६ सूत्र २२ वा० १० में समूचा बता दिया है। इसे ही चारित्रसार मे हरण के प्रायश्चित के वर्णन में उधृत कर लिया है) चा० सा० पृ० ६४ की अन्तिम कुछ पक्तियाँ (रा० वा० अ०६ सू० २२ वा० १० का अन्तिम अश) चा० सा० पृ० ६५ से ६८ तक (रा. वा० अ० ६सू० २३ से २६ तक) चा० सा० पृ०७६ (रा० वा० अ०६ सू. ४४) चा० सा० पृष्ठ ७८ से ८६ तक द्वादश भावनाओ का वर्णन (रा. वा० अ०६पूत्र ७ से लिया गया है। यहाँ चारित्रमार पृष्ठ ८० का "तत्र यावंतो लोकाकाशप्रदेशा."...... " से लेकर "व्यवहारकालेषु मुख्य" तक का पाठ रा० वा० अ०५ सूत्र २२ वा० २५-२६ से लिया है) चा० सा० पृष्ठ ६३ से १०१ तक ऋद्धियो का वर्णन* (रा० वा० अ० ३ सूत्र ३६) वा० मा० पृष्ठ १०२ से १०३ तक त्याग आकिंचन्य ब्रह्मचर्य का स्वरूप (रा० वा० अ०६ सूत्र ६ वा०२१-२२-२८ सम्भव है चारित्रसार मे इस तरह के और भी उदरण हो। जितने हमारी नजरो से गुजरे वे यहां हमने लिखे हैं।
पाठक देखेंगे कि चारित्रसार मे राजवार्तिक से कितना मसाला लिया गया है। चारित्रसार के कुल १०३ पृष्ठ हैं। जिनमे से करीब २५ पृष्ठ छोडकर बाकी सारा ग्रन्थ राज
. . छापे की भूल से यहाँ दो एक स्थान में पक्तिया उलट पलट हो गयी हैं, जिससे वर्णन का सिलसिला टूट गया है। खेद है कि इस भूल की सूचना ग्रन्य भर मे कही नहीं दी है। ऐसी ही गडबड पृष्ठ ३३ मे भी हुई है।