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[ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
चामु डराय ने ही खुद चारित्रसार के अन्तु मे एक पद्य देकर इस विषय को खूब स्पष्ट कर दिया है । चामुंडराय लिखते हैं कि 'तत्वार्थराजवार्तिक, राद्धातसूत्र, महापुराण और आचार ग्रन्थो मे जो विस्तार से कथन है उसी को सजेप मे इस चारित्रसार मे मैंने कहा है ।" वह पद्य यह है
तत्वार्थराद्धांत महापुराणेष्वाचारशास्त्रषु च विस्तरोक्तम् । आख्यात्समामानुयोगवेदी चारित्रसारं रणरगसिंह ॥
इस पद्य में प्रयुक्त तत्वार्थ" शब्द को अर्थ " तत्वार्थराज - वार्तिक करना चाहिए | तत्वार्थ के साथ राद्धात नही लगाना चाहिये । राद्धात. नामका अलग ग्रन्थ है । उसका उक्त च चारित्रसार पृष्ठ ७१ मे "आदाहीण पदाहीण.. " आदि प्राकृत गद्य दिया है । आचारशास्त्र यहाँ मूलाचारादि समझना चाहिए | चारित्रसार मे मूलाचार की भी गाथाये उक्त च रूप से पाई जाती हैं ।
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इससे यह साफ सिद्ध हो जाता है कि चामुण्डराय न केवल अकलकदेव के बाद के ही है किन्तु महापुराणकार जिनसेन और गुणभद्र के भी बाद के है । यही समय नेमिचद्राचार्य का है । क्योकि चामुण्डराय और नेमिचन्द्र की समकालीनता निर्विवाद है । अत इतिहामज्ञो ने जो दूसरे प्रमाणो से उनका समय ११ वी शताब्दी प्रकट किया है वह बिल्कुल ठीक जान पडता है ।' और अब तो उसमे कोई सन्देह ही नही है ।
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- इस लेख मे जिस चारित्रसार के पृष्ठो का उल्लेख किया है वह 'माणिकचन्द्र ग्रन्थ माला' द्वारा प्रकाशित समझना चाहिए ।