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२६२ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
(४) नक्शे मे गंगा सिन्धु को दक्षिण की तरफ के लवण समुद्र में गिरना चित्रित किया है। यह गलत है, दोनो नदिय दक्षिण भरत के अर्द्ध भाग तक ही दक्षिण की ओर वह कर फिर पूर्व-पश्चिम की ओर मुडकर सीधी पूर्व-पश्चिम की तरफ के लवण ममुद्र में गिरी है। इसी तरह की गलती रक्ता रक्तोदा के सम्बन्ध में की गई है। प्रमाण के लिये देखो त्रिलोकसार की गाथा ५६६ वी।
(५) नक्शे में धातकी और पुष्कराद्ध द्वीप की रचना अकित की है परन्तु दोनो द्वीपो के नाम कही नही लिखे है।
६)-नक्शे मे धातकी और पुष्कराद्ध के पूर्वापर भागो को विभाजित करने वाले चार पर्वतो के नाम वक्षारगिरि लिने है। यह गलत है, उनकी जगह इक्ष्वाकार गिरि नाम लिखने चाहिये।
७) धातकी और पुष्कराद्ध मे गंगाको आधे भरत क्षेत्रमे लिखकर उसीको आधे भरतमे सिंधु नामसे लिंखाहै । और सिंधु को भी आधे भरतमे गंगा के नामसे लिखा है। यही भूल उक्त दोनो द्वीपों के ऐरावत क्षेत्र मे की है।
(८) नदीश्वर द्वीप मे ५२ जिनालयो को रचना में दधिमुख और रतिकर पर्वतो के नाम लिखकर यह सूचित किया है कि उनपर जिनालय हैं। किन्तु उनकी तो सख्या ४८ ही होती है। शेष ४ जिनालय कहा किस पर्वत पर है यह नक्शेमे कहीं नहीं लिखा गया है। ४ जिनालय 'अजन गिरि' पर है। ४ दधिमुख भी नही लिखे हैं वे भी लिखने चाहिए ।
(६) २५ से ३२ तक के क्षेत्रो पर 'भूतारण्य' तथा १७ से