________________
३४
दर्शनभक्ति (माथुरसंघी) का शुद्ध पाठ
अथ दर्शन-भक्ति वीरं विलीणमोह णमो णराऽमर णममियं विमलणाण* कम्म महा घण सेलो पलोट्टिदो जेणिमो अणादिपुराणो ॥१॥ मिच्छत्त बद्ध मूलो कसाय सोलस सिलायडो उसिदतु गो । थी पुणपुस वेदय गलदुज्झर धादु लिहिद चित्त देसो ॥२॥ हस्सरदि मिहण किण्णरणिसे विदो अरदिसोय सावय गुविल्लो भयसय अणेय दुस्सहदुगु छिदो वाहि विसम विसहरकडिल्लो ॥३॥ अट्ठविह कम्म पछ्य णगाहिओ मोह गिरिवरो णाम इमो जस्स भरेणऽक्कता समम्मि पडिवज्जिद सक्काण सक्का ॥४॥ भवसय सहस्स विहगगण णिसेविदो जेण णासिदो मोह गिरी मो सम्मणाणदसण चरित्त विहि देस ओ दिसदु मे सिद्धि ॥५॥
भव्य. सम्प्रति लब्धकाल करण प्रायोग्य लब्धयादिकः
सम्यक्त्वस्य समुद्भवाय घटयन् मिथ्यात्वकर्म स्थितिम् ।
★-'विउलणाण' पाठ ।