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[ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
की तुम इतनी डीग मारते हो वह दरअसल मे इतना श्रेष्ठ होता तो उसके मानने वालो की आज इतनी कम सख्या न होती। उत्तर यह है कि किसी मजहब की उत्तमता उसके अनुयायियो की अधिक संख्या पर निर्भर नही हो सकती, प्राय उत्तम चीज पाई भी थोडी जाती है। पत्थरो के ढेर मिलेंगे पर जवाहिरात विरली ही जगह पायेंगे। काको के झड मिलेंगे, लेकिन हस नजर न पडेंगे । एक बात यह भी है कि उत्तम चोज के रखने का पात्र भी तो उसीके योग्य चाहिये, सिंहनी का दूध सुवर्ण पात्र को छोड अन्यत्र नही ठहरता। जो दया प्रधान धर्म विषयकपाय छोड नेकी शिक्षा देता है, उसका पातन इन्द्रियो के गुलाम, कषायो के पुतले, कठोर चित्त वाले जिनकी कि अधिक संख्या है क्यो कर कर सकते है । विरोधियो के झठे अपवाद और उसपर जैनियो के प्रमाद से भी उसकी कम क्षति नही हुई है फिर भी देश मे जैन नाम धारियो को चाहे सख्या न बढी हो तो भी उसका अन्य धर्मों पर जो गहरा असर पड़ा है, उससे मप्रकट आशिक जैन तो बहुत अधिक हैं। इसे ही प्रसिद्ध देशभक्त लो० बालगगाधर तिलक ने भी प्रकट किया है कि 'यथार्थ पशु-हिंसा जो आजकल नही होती है यह एक वडी भारी छाप जैन धर्म ने ब्राह्मण धर्म पर मारी है" क्यो कि -
यच्छुभं दृश्यते वाक्यं तज्जन पर दर्शने । मौक्तिकहि यदन्यत्र तदब्धौ जायतेऽखिलम् ।।
अर्थ-जो अच्छा उपदेश पर मतो मे मिलता है उसे जैनों से ही लिया हुआ समझना चाहिए। क्योकि मोती कही पर भी हो, आता समुद्र से ही है।