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[ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
सम्राट् चन्द्रगुप्त के स्वप्नो पर भविष्यवाणी के रूप मे एक स्वप्न का कुफल इस प्रकार बताया है
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भूतानां नर्तनं राजन्नद्राक्षी रद्भुतः ततः । नीच देव रतां मूढाः भविष्यन्तीह मानवा. ||३८||
[अ० २]
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अर्थ - हे राजन् जो तुमने भूतो का अद्भुत नृत्य उससे भविष्य मे लोग सरागी देवो की पूजा कर मूढ
(४) पुनरपि आप लिखते है
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ऐसा ही कथन आदि पुराण पर्व ४१ श्लोक ७१ मे भरत चक्रवर्ती के दु स्वप्नो का कुफल बताते हुए किया है ।
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देखा है
बनेगे ।
'आशाधर जी ने पूर्वाचार्यों के अनुसार ही कथन किया है देखो, आदिपुराण (पर्व २६ श्लोक १ तथा पर्व ३१ श्लोक ५३ ) मे लिखा है - चक्रवर्ती ने चक्ररत्न की अष्ट द्रव्यो से पूजा की । पर्व ३६ मे - बालक का जहाँ पर नाल गाढते हैं उस भूमि की पूजा करके अर्ध चढाना लिखा है ।'
समीक्षा
इन सब कथनो मे लौकिक दृष्टि से लौकिक कार्य सिद्धि के लिए लौकिक अङ्गो का पालन मात्र है, इनमे धार्मिक पूज्यता दृष्टि नही है । जबकि आशाधर जी की सरागी देवो की पूजा धार्मिक पूज्यता की दृष्टि से है, जैसाकि पूर्व मे हम बता चुके है । अत आपका यह सब लिखना भी गलत है । पर्व ३६ का जो आपने उल्लेख किया है, वह गलत है वह कथन पर्व ४० श्लोक १२१ से १२४ मे है । उसमे कही भी ' पूजा अर्ध शब्द नही