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कतिपय ग्रन्थकारो का समय निर्णय ]
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ग्रन्थो के कर्त्ता हैं तथा जिन्होंने अनेक ग्रन्थो पर टीका टिप्पण लिखे है उनका समय विक्रम की ११वी शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर १२वी के प्रथम चरण तक का है। यह समय अब अनेक प्रमाणो और उल्लेखो से अच्छी तरह स्पष्ट हो गया है अत यहाँ उसके दोहराने की जरूरत नही है । यहाँ हम विद्वानो का ध्यान इस बात पर आकृप्ट करना चाहते है कि प्रभाचन्द्र ने प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र आदि की समाप्ति पर जो पुष्पिका वाक्य लिखे है उनमे वे अपने को धारा निवासी पडित प्रभाचन्द्र लिखते है इसका क्या मतलब है ? इन वाक्यों से साफ तौर पर यह प्रतिभासित होता है कि उस वक्त तक प्रभाचन्द्र ने गृहत्याग नही किया था । प्रमेयकमलमार्त्तण्ड को उन्होने धारा मे राजा भोज के समय मे बनाया और न्यायकुमुद को भोज के उत्तराधिकारी राजा जयसिंह के समय मे बनाया | अगर वे महाव्रती हो गये होते तो भोज से लेकर जयसिंह तक के लम्बे समय तक एक ही धारा नगरी मे कसे रह सकते थे ? और मुनि हुये बाद स्वयं ही अपने को किसी एक खास नगर का निवासी भी कैसे लिख सकते थे ? और देखिये इन्ही प्रभाचन्द्र ने आराधना गद्य कथाकोश लिखा है जिसमे ८वी कथा के आगे पुष्पिका वाक्य लिखे है और ग्रन्य- समाप्ति पर भी लिखे हैं इस प्रकार एक ही ग्रन्थ मे दो जगह प्रशस्ति लिखी है इसका कारण यही मालूम होता है कि- ८६ कथा तक की रचना उन्होने गृहस्थावस्था मे की है और उनसे वाद की कथायें भट्टारक होकर की हैं इसीसे वे प्रथम प्रशस्ति मे अपने को पडित प्रभाचन्द्र लिखते है और दूसरी प्रशस्ति मे अपने को भट्टारक प्रभाचन्द्र लिखते हैं ।
और जो इन्होंने न्यायकुमुद आदि की प्रशस्तियो मे अपने