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[ * जन निबन्ध रत्नावली भाग २
जिस मति को माध्यम बनाकर हम अपने आराध्य देव की आराधना करके अपना कल्याण करते है-इहलोक परलोक सुधारते हैं उस मूर्ति को बाजारू चीज बना देने से क्या उसका गौरव रहेगा, यह प्रश्न काफी गम्भीर और विचारणीय है।
सो सर्व दोषा ने छोड सम्पूर्ण गुण सहित यथाजात स्वरूप निपुणता दोय चार पाच सात वर्ष मे होय, एक तरफ तो जिन मदिर की पूर्णता होय और एक तरफ प्रतिमाजी अवतार धरे।
पीछे घने गृहस्थाचार्य पडित अरु देश-देश का धर्मी ताक प्रतिष्ठा का मुहुर्त ऊपर कागज दे दे घना हेत सू बुलावे। सर्व सघ को नित प्रति भोजन होय और सर्व दुखित को जिमावे, कोई जीव विमुख न होय रात्रि दिवस ही प्रसन्न रहे।
पीछे भला दिन भला मुहुर्त विपे शास्त्रनुसार प्रतिष्ठा होय । धनो दान बटे इत्यादि धनी महिमा होय । ऐसी प्रतिष्ठी प्रतिमाजी पूजना योग्य है। बिना प्रतिष्ठी पूजना योग्य नहीं ॥"
सारे देश में प्रतिवर्ष कितनी ही पचकल्याणक प्रतिष्ठायें होती हैं औप उनमे १०-२० नहीं किंतु सैकड़ों की संख्या में जैन मूर्तियो की प्रतिष्ठा होती है। लेकिन ये मूर्तिया शास्त्रोक्त विधि से निर्मित कलापूर्ण एव मनोज्ञ हैं या नहीं इस ओर बहुत कम ध्यान दिया जाता है। प्रस्तुत लेख मे विद्वान् लेखक ने मूर्ति निर्माण की शास्त्रोक्त विधि पर विशद प्रकाश डाला है उस पर मूत्ति प्रतिष्ठापको एव प्रतिष्ठाचार्यो का ध्यान जाना आवश्यक है।